-डा.मोहन चन्द तिवारी
गंगा-जमुनी साझा संस्कृति का इतिहास साक्षी है कि हिन्दू ही नहीं मुस्लिम बादशाहों और साहित्यकारों ने भी होली की साझा विरासत के सवंर्धन में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। मुस्लिम पर्यटक अलबेरूनी ने अपने यात्रा संस्मण में होलिकोत्सव का विशेष वर्णन किया है। भारत के अनेक मुस्लिम कवियों ने अत्यन्त मनोयोग से कृष्णभक्ति के रंग में रंगते हुए अपनी काव्य रूपी पिचकारी से कृष्ण कन्हैया और उनकी गोपियां पर शृंगार रस-रंग की बौछारें की हैं। कवि रसखान कृष्ण भक्ति के राग-रंग में इतना डूब गए कि वे कृष्ण और गोपियों की होली खेलने का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कृष्ण ने गोपियों के साथ होली क्या खेली उनकी काम-वासना को ही जागृत कर दिया। पिचकारी और धमार से उनका तन-मन भिगो दिया। साड़ी और अंगवस्त्र हट गए, अंग-अंग पर लाल गुलाल मल दिया-
“आवत लाल गुलाल लिए मग
सुने मिली इक नार नवीनी।
त्यों रसखानि जगाद हिये यटू
मोज कियो मन माहि अधीनी।।
सारी फटी सुकुमारी हटी अंगिया
दरकी सरकी रंग भीनी।
लाल गुलाल लगाई के अंक
रिझाई बिदा करि दीनी ।।”
उधर राजस्थान के अजमेर शहर में ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह पर गाई जाने वाली होली ‘आज रंग है री मन रंग है, अपने महबूब के घर रंग है री’ गंगा-जमुनी संस्कृति के रंग में सरोवार एक ऐसी होली है जिसे हिन्दू-मुसलमान सभी मिल कर गाते हैं।
इतिहास साक्षी है कि होली हिन्दू ही नहीं मुसलमान भी मनाते आए हैं। प्राचीन काल से होली मनाने की परंपरा मुगलों के शासन काल में भी जारी रही। अकबर, हुमायूँ, जहाँगीर, शाहजहाँ और बहादुरशाह ज़फर होली के आगमन से बहुत पहले ही रंगोत्सव की तैयारियाँ प्रारंभ करवा देते थे। अकबर के महल में सोने चाँदी के बड़े-बड़े बर्तनों में केवड़े और केसर से युक्त टेसू का रंग घोला जाता था और राजा अपनी बेगम और महल की सुंदरियों के साथ होली खेलते थे। शाम को महल में मुशायरे, कव्वालियों और नृत्य-गानों की महफ़िलें जमती थीं।
अकबर का जोधाबाई के साथ और जहांगीर का नूरजहां के साथ होली खेलने के ऐतिहासिक उल्लेख मिलते हैं। अलवर के संग्रहालय में एक कलाकृति संरक्षित है जिसमें जहांगीर को होली खेलते हुए दिखाया गया है। शाहजहां के समय में होली खेलेने की शुरूआत एक मुगलिया त्योहार के रूप में हुई जिसे ‘ईद-ए-गुलाबिया आब-ए-पाशी’ अर्थात ‘रंगों की बौछार’ के नाम से जाना जाता था।अन्तिम मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर होली खेलने के बड़े शौकीन थे।
हैदराबाद के रजवाड़ों में ‘आसिफजांही’ राज्य के सातवें व अन्तिम बादशाह उस्मान अली के शासनकाल में हिन्दू और मुसलमान दोनों मिलकर होली और ईद के त्यौहार मनाया करते थें। मुसलमान दिल खोलकर होली खेलते थे तो हिन्दू भी मुहर्रम के ताजियों में बढ़चढ़ कर भाग लेते थे। ऐसी ही एक याद को ताजा करते हुए स्वामी वाहिद आजमी ने अपने एक लेख ‘मस्जिद में हिन्दू और मन्दिर में मुसलमान’ में कहा है कि ग्वालियर से तीस कि-मी- दूर ‘अबुल फज्ल’ की आखिरी आरामगाह ‘आंतरी’ कस्बे की याद आज भी उन्हें ताजा है जब हिन्दू मुसलमान रंगों-गुलालों से सरोबार मंडली बनाए होली खेलते झूमते थे। मुहर्रम पर बड़े-बड़े ताजियों के जुलूस में हिन्दू-मुसलमान सामूहिक स्वरों में ‘हजरत हसन हुसैन’ की शान में मर्सिए गाते थे पर चिन्ता की बात है कि होली के इस राष्ट्रीय त्योहार में आज गंगा-जमुनी संस्कृति और सामाजिक समरसता का यह राग-रंग लुप्त होता जा रहा है।
(फेसबुक वॉल से साभार)
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