..इसलिए भी है होलिका दहन की परंपरा
-डॉ.मोहन चंद तिवारी
होली का त्योहार है पूरे भारत में दो दिन बड़े उत्साह से मनाया जाता है, एक दिन होलिका दहन के रुप में और अगले दिन धुलंडी के रुप में। भारत में इस साल होलिका दहन 12 मार्च को किया जाएगा और 13 मार्च को लोग रंगों के इस त्योहार का आनंद उठाएंगे। भगवान श्रीकृष्ण के जीवन से जुड़े स्थानों पर होली का एक अलग ही रंग देखने को मिलता है। मथुरा, वृंदावन, गोकुल, नंदगांव और बनारस की होली काफी प्रसिद्ध है।
होली का पर्व अपने उद्भवकाल से ही जहां हास-परिहास एवं मनुष्य की आसुरी वृत्तियों के दहन-विरचेन का पर्व रहा है। वहां यह पर्व प्रत्येक युग परिस्थितियों में सांस्कृतिक परम्पराओं से ताल मेल बैठाते हुए सामाजिक समरसता, जातिगत सौहार्द और धार्मिक सद्भावना को प्रोत्साहित करने का भी लोकपर्व है।
भारत में होली पर्व के प्राचीन इतिहास पर यदि नजर डाली जाए तो वैदिक युग में ‘सोमयाग’ के अवसर पर ‘अभिगर-अपगर संवाद’ के रूप में जो हास-परिहास का नाट्य मंचन होता था उसी से प्रेरित होकर होली के अवसर पर स्वांग, नृत्य और हंसी ठिठोली की परम्परा शुरू हुई। होली के लिए प्रयुक्त होने वाला सबसे प्राचीन शब्द ‘होलाका’ है। काठक गृह्यसूत्र (73-1) के ‘राका होलाके’ सूत्र के अनुसार ‘होलाका’ नामक इस पर्व के अवसर पर स्त्रियों के सौभाग्य देवता पूर्ण चन्द्रमा की विशेष पूजा करने की प्रथा थी। धीरे धीरे पौराणिक युग में इस त्योहार का सम्बन्ध बालकों की अकाल मृत्यु से बचाने वाले ढोण्ढा राक्षसी के दहन के आख्यान से जुड़ गया। इस आख्यान के अनुसार दिव्य वरदान के कारण शक्तिशाली ढोण्ढा राक्षसी को जोर जोर से तालियां बजाकर अश्लील और भद्दे गाने गाकर, फाल्गुनी पूर्णमासी की रात को तीन बार अग्नि की परिक्रमा करके भस्म किया जा सकता था। तभी से होली के अवसर पर होलिका दहन की परम्परा प्रारम्भ हुई। एक दूसरी पौराणिक मान्यता के अनुसार हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका के दहन की कथा भी इस पर्व के साथ जुड़ी है। जिसके बारे में लोग ज़्यादा जानते हैं।
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