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॥ नैन नचाय कही मुसकाय ॥ ॥लला फिर आइयो खेलन होरी॥

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–डा.मोहन चन्द तिवारी

भारतीय परम्परा में होली श्रृंगारिक हाव भावों के कारण मदनोत्सव का एक पारंपरिक रूप भी है। मनुष्य के चार पुरुषार्थ-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इनमें से होली का सम्बन्ध ‘काम’ पुरुषार्थ से है। गीता से ज्ञात होता है कि होली के महानायक कृष्ण स्वयं प्राणियों में धर्मानुकूल काम प्रवृति के उद्भावक देव भी हैं –
“धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।”

उधर भविष्योत्तरपुराण में भी श्रीकृष्ण ने होली का माहात्म्य बताते हुए इस दिन कामदेव की पंचोपचार पूजा का विधान किया है।
होली के प्रेमरंगों में रंगने की चाह ईश्वर की भी है और भक्त की भी, प्रेमी की भी है और प्रेमिका की भी। होली की इसी प्रेमभावना से प्रेरित होकर अनेक कवियों ने अत्यन्त मनोयोग से कृष्णभक्ति के रंग में रंगते हुए अपनी काव्य रूपी पिचकारी से कृष्ण कन्हैया और उनकी गोपियों पर शृंगार रस-रंग की बौछारें की हैं–
“सारी फटी सुकुमारी हटी,
अंगिया दरकी सरकी रंग भीनी।
लाल गुलाल लगाई के अंक,
रिझाई बिदा करि दीनी ॥”

कवि रसखान कृष्ण भक्ति के राग-रंग में इतना डूब गए कि वे कृष्ण और गोपियों की होली खेलने का वर्णन करते हुए कहते हैं कि कृष्ण ने गोपियों के साथ होली क्या खेली उनकी काम-वासना को ही जागृत कर दिया। पिचकारी के रंग से उनका तन-मन भिगो दिया। साड़ी और अंगवस्त्र हट गए, अंग-अंग पर लाल गुलाव मल दिया –
“आवत लाल गुलाल लिए मग,
सुने मिली इक नार नवीनी।
त्यों रसखानि जगाद हिये,
यटू मोज कियो मन माहि अधीनी।”

होली के रंग में डूबे पद्माकर के सवैयों की रसधार भी कुछ कम रंगीली नहीं। उनकी अहीर गोपियां होली के दिन कृष्ण को भीतर ले जाकर अबीर की सारी झोली उन पर उडेल देती हैं, गालों पर लाल रोली मलकर पीताम्बर भी छीन लेती हैं और आखें मटकाते हुए मुस्कराकर कहती हैं – लला, अगली बार फिर होली खेलने आना –
“फागुन की भीर अभीरिन ने गहि,
गोबिन्द लै गई भीतर गोरी
भाय करी मन की पद्माकर,
ऊपर नाई अबीर की झोरी
छीने पीताम्बर कम्मर तै सु,
बिदा कई दई मीडि कपोलन रोरी।
नैन नचाय कही मुसकाय,
लला फिर आइयो खेलन होरी।।”

होली के प्रेमरंगों में रंगने की चाह ईश्वर की भी है और भक्त की भी, प्रेमी की भी है और प्रेमिका की भी। इसी चाह से प्रेरित होकर मीरा बाई अपने प्रियतम गिरधर गोपाल के संग होली के रागरंग में पूरी तरह सरोबार है-
“रंगभरी रागभरी राग सू भरी री।
होली खेलया स्याम संग रंग सू भरी री।”

नागरी दास ब्रज की इस होली के उल्लास और आनन्द के सामने स्वर्ग के आनन्द को फीका ही समझते हैं इसलिए रसिया कृष्ण ब्रज बालाओं के निमन्त्रण को स्वीकार करते हुए स्वर्ग की ठकुराई को छोड़कर भी गोपियों के साथ होली का आनन्द लेने हर साल ब्रज में पहुंच जाते हैं –
“स्वर्ग बैकुण्ठ में होरी जो नाहि,
तो कारीं कहा लै करै ठकुराई।”

ब्रज की होली आज भी अपनी सांस्कृति़क पहचान बनाए हुए है। ब्रज के वैष्णव मन्दिरों में धमार, गायन, विलावत रागों का सुर इसी होली से मुखरित रहता है-
“जमुना तट क्रीडत नव नंदन होरी परम सुहाई। ”

भारत की सबसे अधिक रंगीली होलियों में व्रज की लट्ठमार होली प्रसिद्ध है। फाल्गुन का महीना लगते ही व्रज के गांव-गांव में फाग और होली के रसियों का गायन वादन शुरू हो जाता है। फाल्गुन शुक्ल नवमी को बरसाने की गलियों में लट्ठमार होली होती है। नन्दगांव के कृष्ण सखा ‘हुरिहारे’ बरसाने में होली खेलने आते हैं जहां बरसाने वाली राधा की सखियां लाठियों से उनका स्वागत करती हैं। सारा व्रज मण्डल होली की हंसी-ठिठोली हास-परिहास के आनन्द रस में डूबा रहता है और होली के गीतों से गुंजायमान रहता है। इस होली का आनन्द लेने के लिए देश विदेश के लोग बरसाने की गलियों में उमड़ पड़ते हैं। मंहगाई, बेरोजगारी, इन तमाम तनावों से मुक्त होकर हर ब्रजवासी बाला होली के आगमन पर गोपी बन जाती है जो ‘नैन नचाय कही मुसकाय’ के प्रेमरंगों का गुलाल मलते हुए हर युवा कृष्ण का सखा बनकर कहती है-‘लला फिर आइयो खेलन होरी।’ ब्रज में गोपियों की इसी रंगभरी पिचकारियों के साथ आप सब को होली की हार्दिक शुभ कामना।

आप के शब्द

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18 Comments to ॥ नैन नचाय कही मुसकाय ॥ ॥लला फिर आइयो खेलन होरी॥

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