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..आम के मौसम में मिठाई नहीं खाते!

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-इंजी.एस.डी.ओझा

फलों का राजा आम. आमों का प्रधान लंगड़ा आम. कुछ लोग दशहरी को भी कह सकते हैं,पर यह बहुत हीं मीठा होता है. लंगड़ा आम का खट्टा मीठा स्वाद जुबां को एक अलग स्वाद से परिचित कराता है. इसमें विटामिन सी की भरपूर मात्रा होती है. इसलिए लंगड़ा आम को मधुमेह के मरीज को भी डाक्टर खाने की सलाह देते हैं.यह रक्त में शर्करा की मात्रा को संतुलित करता है. लंगड़ा व बनारस एक दुसरे के पर्याय हैं. कुछ लोग कहते हैं कि यह लंगड़ा की खुशनसीबी है कि वह बनारस में पैदा हुआ अन्यथा लंगड़ा पर कौन मरता ?कौन इसे पसंद करता? . पर बनारसी दास, जो बनारस के हीं रहने वाले हैं, वे ऐसा नहीं मानते. वे कहते हैं –

बनारसी कबहूं न छाड़िए, ऐसो काशी धाम.
मरौं तो मुक्ती मिले, जीवौं तो लंगड़ा आम.

पश्चिम बंगाल में लोग हिमसागर और लंगड़ा आम के दीवाने हैं. लोग विक्रेता से पूछते हैं -क्या प्रूफ है कि यह लंगड़ा है? विक्रेता भी मजाक में कहता है “साहब, यह लंगड़ा है तभी तो इसे सिर पर बिठाकर बेचते हैं. ” जो भी हो लंगड़ा सिर पर हीं नहीं बैठता, बल्कि इसका स्वाद भी सिर चढ़कर बोलता है. लंगड़ा आम से प्रभावित होकर हीं शायद मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने लिखा है –

इंसान की हाथों की बनाई नहीं खाते,
हम आम के मौसम में मिठाई नहीं खाते.

आज से ढाई सौ साल पहले की बात है. बनारस के मंदिर में एक साधू आ कर ठहरे. उनके पास आम के दो पौधे थे. उन्होंने उन पौधों को वहीं मंदिर प्रांगण में रोप दिया. साधू ने उनकी देख रेख अपने सगे बेटे से भी बढ़कर की. यथोचित खाद पानी पाकर ये पौधे दिन दूना, रात चौगुना उन्नति करने लगे. पांच साल बाद उन पेड़ों पर मंजरियों का आगमन हुआ. उन पर फल लगे. पकने पर साधू ने उन आमों को भोग स्वरूप भगवान शिव को चढ़ाया. प्रसाद सबको बांटा गया, पर गुठली किसी को नहीं दी गई. डर था कि उस गुठली से अन्यत्र भी आम का पेड़ उगाया जा सकता था, जिससे इन पेड़ों की महत्ता कम हो जाती. कुछ दिनों बाद साधू उस मंदिर को छोड़ अन्यत्र चले गये.रमता जोगी, बहता पानी कहीं एक जगह टिक के नहीं रहता. साधू के जाने के बाद काशी नरेश ने इस आम की कई कलमें लगवाईं. देखते देखते बनारस के आस पास का इलाका इन आमों से आबाद हो गया. देश विदेश में इन आमों की चर्चा होने लगी. स्वाद सुगन्ध में यह आम बेजोड़ था. इस आम का नाम पड़ा -लंगड़ा, क्योंकि इसके आविष्कारक साधू लंगड़े थे.लंगड़ा जब कभी बनारस से बाहर भेजा जाता, उसमें एहतियात के तौर पर छेद कर दिया जाता ,ताकि उसकी गुठली अपनी उर्वरक क्षमता खो दे और कोई इसे अन्यत्र न लगा सके. अब लंगड़ा आम सर्व व्यापी हो गया है. व्यापारी आज भी बेचते हैं तो फक्र से कहते हैं -बनारस का लंगड़ा और ग्राहक भी खरीदता है तो फक्र से कहता है -बनारस का लंगड़ा.

इस आम के दीवाने बी एच यू के संस्थापक महमना मदन मोहन मालवीय, प्रसिद्ध अभिनेत्री नूर जहां, मशहूर गजलकार मिर्जा गालिब भी थे. महामना ने लंगड़ा आम बी एच यू परिसर में भी लगवाया था. नूरजहां पाकिस्तान पहुंच कर भी लंगड़े को नहीं भूल पाईं. वे वहां से भी इस आम को आवाज देती रहीं –

आवाज दे कहां है?
दुनियाँ मेरी जवां है.

68 किस्मों के आमों का स्वाद चख चुके मिर्जा गालिब को जब उनके किसी मुरीद ने लंगड़ा आमों का टोकरा बनारस से भिजवाया तो वे बरबस कह उठे –

आम की बहार आ गई,
गोकि गालिब जवां हो गये.

मुनव्वर राना आज भी कहते हैं-

अल्लाह जानता है कि मुहब्बत हमीं ने की.
गालिब के बाद आमों की इज्जत हमीं ने की.

बनारस की पहचान लंगड़ा. यहां की एक सामाजिक संस्था हूमन वेलफेयर एसोसियेशन ने इस आम के जी आई पंजीकरण आवश्यक कर दिया है. स्थानीय किसानों के अलावा कोई भी इसका एकाधिकार नहीं खरीद सकता . इसके बावजूद लंगड़ा आम का क्षेत्र सीमित होता जा रहा है. आम के पेड़ काटकर कांक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं. बनारस से जुड़े होने की इसकी तथाकथित खुशनसीबी बदनसीबी में तब्दील होती जा रही है. बनारस से इसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया है।
(फेसबुक वॉल से साभार)

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