लेखक:विनय कुमार
माँ, तुम आ गई। तुम्हारे आने भर की सूचना से प्रकृति का पोर पोर महमहा उठा है। आओ और मेरे आँगन की अटखेलियाँ कर रही रंगोलियों को देखो।
हरसिंगार के फूल की महक में उसका इतराना देखो।अमा निशा के अंधकार की सजीवता को देखो,शीत की फटती सलवटों को देखो। देखो,पूरी प्रकृति कितनी सजीव हो उठी है।
देख न माँ,काल के चक्र ने अपनी जड़ से दूर आज कहाँ मुझे बसा दिया है?अपनी मिट्टी,अपना पुराना घर सब कुछ छूट सा गया है।
माँ,तुम्हें सबकुछ पता ही है। मैं अपने अंदर उठने वाली प्रश्नाकुलताओं में अपने अस्तित्व मात्र की तलाश में अबतक बैचेन हूँ। शक्ति,सौन्दर्य और लिप्सा के वृत्त में डूबता उतरता सामान्य मनुष्य की तरह मैं भी हूँ। माँ,मुझे विशेष बना दो। मेरे मन के अंधतमस में तुम आओ। मेरी जिद्द को स्वीकार करो।
मुझे कलश स्थापित करने नहीं आता है।मुझे बालू के ऊपर जौ के बीज के आरोपण का विधि पता नहीं है। न ही मेरे पास लाल-पीला जनेऊ और रंगीन धोती है।लेकिन संस्कृत के तमाम श्लोक मुझे आज भी याद हैं,फिर बताओ इस श्लोक को कब तुम्हें सुनाऊँ?
मेरे मानस-बिम्ब में तुम्हारी उपस्थिति एक सुंदरी की तरह है। और तुम तो हो भी त्रिपुर सुंदरी। फिर बताओ कि तुम्हारे शृंगार वास्ते क्या क्या लाऊँ?हरी चुड़ियाँ या लाल वाली?साड़ी किस रंग की लोगी?आल्ता और महावर गाढ़ा वाला या थोड़ा हल्का? बता दो,सब ले आऊँगा।
माँ,देख न.आज समय और समाज कितना विकराल हो उठा है?चारों ओर एक गज़ब सी उदासी पसरी हुई है। इस विचित्र सन्नाटे में तुम्हें कैसे महसूस करूँ?यह भी बताओ।
आज सप्तमी है। मेरा छोटा सा घर आज आनंदित है। मैं अंदर ही अंदर भींग रहा हूँ।तैयारियाँ शेष है,करने जा रहा हूँ……हे माँ, मुझे अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो…,
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