दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ( डूटा) का चुनाव संपन्न हो गया और नतीजा वही रहा जैसा 2017 में। यानि इस वर्ष भी वामपंथी शिक्षक संगठन डी टी एफ ने दक्षिणपंथी शिक्षक संगठन एन डी टी एफ को हरा दिया। यहाँ यह भी गौर करने वाली बात है कि लगभग एक दशक से डूटा पर वामपंथी शिक्षक संगठन का ही कब्ज़ा है। हालिया चुनाव में डी टी एफ के उम्मीदवार राजीब रे ने एन डी टी एफ के उम्मीदवार ए के भागी को 269 वोटों से हरा दिया। गौरतलब है कि राजीब रे लगातार दूसरी बार डूटा प्रेजिडेंट बने हैं।
29 अगस्त की देर रात आये नतीजो के बाद शुक्रवार को दिन भर डीयू में चुनाव की ही चर्चा ज़्यादा रही। इस चर्चा में राजीब रे की जीत से कहीं ज़्यादा चर्चा ए के भागी की हार के हो रहे हैं। ऐसा इसलिए क्यूंकि इस बार चुनाव से कुछ हफ़्तों पहले से एन डी टी एफ डीयू के मौजूदा हालात में डूटा चुनाव में अपनी ज़ोरदार जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त थी। नार्थ कैंपस के पटेल चेस्ट पर अक्सर शाम में होने वाली चाय की चुस्कियों के बीच संगठन के नेता कहते थे कि 10 साल का सूखा इस बार दूर होगा क्यूंकि डीयू के विभिन्न कालेजों में पढ़ाने वाले तदर्थ शिक्षक उनके साथ हैं, क्यूंकि समायोजन के नाम पर उनको झुनझुना ही पकड़ाया जा रहा है। दरअसल डीयू में इस बार कुल पंजीकृत वोटरों की संख्या 9630 थी। इनमे से 7749 शिक्षक वोटरों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। विजेता उम्मीदवार को
3750 और पराजित उम्मीदवार को 3481 वोट मिले। ख़ास बात यह रही कि 518 वोट ‘इनवैलिड’ करार दिए गए। जीत का मार्जिन 269 लेकिन इनवैलिड वोट लगभग दुगने। कुछ लोगों ने कहा कि NOTA का विकल्प नहीं होने के कारण दोनों में से किसो भी उम्मीदवार को वोट न देने के लिए शिक्षकों ने जानबूझकर ऐसा किया। अब सवाल यह उठता है कि आखिर यह विरोध क्यूँ? दरअसल इसका कारण यह है पिछले कुछ समय से दिल्ली विश्वविद्यालय में जारी गतिरोध प्रमुख है। इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि शिक्षकों के प्रमोशन और सेवा से जुड़े अनेक मुद्दे समाधान की बात जोह रहे हैं। इसके अलावा सबसे बड़ा मुद्दा डीयू में कार्यरत एड होक शिक्षकों की स्थायी नियुक्ति का। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज डीयू एड होक शिक्षकों के भरोसे चल रही है। पढ़ाने ऐ लेकर कापी चेक करने और तमाम प्रशाशनिक जिम्मेदारियां इन तदर्थ शिक्षकों के भरोसे चल रही हैं। मगर दुर्भाग्य यह कि ये शिक्हक अपने भविष्य को लेकर सशंकित हैं। इसीलिए तमाम दावों के बावजूद इस बार के चुनाव में 2017 की ही कहानी दुहराई गई। क्यूंकि एन डी टी ऍफ़ एड हॉक शिक्षकों को यह समझाने में नाकामयाब रहा कि वे क्यूँ उसके साथ आयें? भले ही संगठन अपने वोट बढ़ने की बात कहे और हार के लिए “लैटर राजनीति” को ज़िम्मेदार ठहराए। सच तो यह है कि एन डी टी ऍफ़ को उसका अति आत्मविश्वास ले डूबा। यह समय मंथन का है। शायद इसीलिए उनके उम्मीदवार डॉ ए के भागी ने शिक्षक एवं विश्वविद्यालय हितों में DUTA को पूर्ण सहयोग देने की बात कही है।
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