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हाथ कंगन तो आरसी क्या..! कैसे बना यह मुहावरा

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इंजी. एस.डी.ओझा

गोरी है कलाईयां , ला दे हरी हरी चूड़ियां । शुक्र है ,उसने कंगन
नहीं मांगा । कंगन कीमती होता है । इसलिए सस्ती चीज लाने में हर्ज नहीं होना चाहिए । कान के बुंदों की भी फरमाइश हो सकती थी , पर उसके लिए आरसी का प्रबंध करना पड़ता। आरसी फारसी का शब्द है । आरसी आईना या दर्पण को कहते हैं । कान की बुंदों के साथ आप हर जगह आरसी का प्रबंध नहीं कर सकते । बिना आरसी के कोई बुंदें कैसे पहन सकता है ?यदि बुंदें पहन भी ले तो यह कैसे पता चलेगा कि वे कैसे लग रहे हैं ? क्या कहा ? आप बताएंगें ?आप झूठ भी तो बोल सकते हैं, लेकिन आरसी झूठ नहीं बोलेगा । यदि यह झूठ बोलता तो यह गीत किसी ने कभी क्यों लिखा था – दर्पण झूठ ना बोले ।

मेरे विचार से तो आपके लिए कंगन खरीदना हीं निरापद होगा। चाहे वह मंहगा हीं क्यों न पड़े ? अब चूड़ी खरीदकर अपनी छीछालेदर थोड़े हीं करवाएंगे आप ? आखिर स्टेटस भी कोई चीज होती है ? कंगन खरीदने में आपको आरसी का प्रबंध नहीं करना पड़ेगा । अगर कोई आरसी की डिमांड करता है तो आप कह सकते हैं कि ” हाथ कंगन तो आरसी क्या ?” हाथ कंगन तो आरसी क्या ? एक विश्व प्रसिद्ध मुहावरा बन गया है । अत: आप इसे ताल ठोक के कह सकते हैं । कोई आपका बाल बांका नहीं कर सकेगा । कंगन हाथ में पहनने की चीज है , जिसे आप देख सकते हैं । प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम् ? फिर आपको आईने की हसरत क्यों है ? बेसबब बात बढ़ाने की जरूरत क्यों है ?

आप कह सकते हैं कि ” हाथ कंगन तो आरसी क्या है ?” मुहावरा फारसी की देन है । हम कहेंगे यह संस्कृत की देन है । संस्कृत में इसे यूं कहा गया है – हस्ते कंकणम् किं दर्पणेन् । यह मुहावरा हजारों साल पहले संस्कृत में रचा गया , जब कि ” हाथ कंगन तो आरसी क्या ” वाला मुहावरा मुगलों के आने के बाद गढ़ा गया । फारसी संस्कृत की बेटी है । जाहिर है इस मुहावरे पर केवल और केवल संस्कृत का हक है । हां , इसके साथ के हमलतीफ मुहावरे ” पढ़े लिखे को फारसी क्या ? ” पर जरूर फारसी का हक बनता है ।

जिस तरह से आज अंग्रेजी का वर्चस्व है , वैसा हीं वर्चस्व कभी मुगल काल में फारसी का था । फारसी उन दिनों राज काज , कोर्ट कचहरी की भाषा थी । फारसी जानने वाले के पास नौकरी दौड़ के आती थी । फारसी एक सुगम, सुबोध भाषा है , जिसे कोई कम पढ़ा लिखा आदमी भी जान सकता है। इसलिए तुरंत मुहावरा बनाना पड़ा – “पढ़े लिखे को फारसी क्या ?” अब इन दो हमलतीफ मुहावरों को जोड़कर एक नया मुहावरा गढ़ा गया , ” हाथ कंगन तो आरसी क्या , पढ़े लिखे को फारसी क्या ?”

हांलाकि दोनों मुहावरों का अलग अलग अस्तित्व आज भी कायम है ।
(फेसबुक वॉल से साभार)

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