-इंजी. एस डी ओझा
जी हां ,मैं मुरादाबाद हूं. सन् 1625 से आबाद हूं. पहले इस क्षेत्र को चौपाला कहते थे. चौपाला मतलब चार गांव . देहरी , मदौरा ,दीनदार पुर ,मानपुर नारायण पुर . ये चारो गांव रूहेलखण्ड सूबे में आते थे. मुगल बादशाह शाहजहां ने रूस्तम खां को इस सूबे का सूबेदार बनाकर भेजा था . रूस्तम खां को यह जगह बहुत पसंद आई . उसने यहां एक नया नगर बसाया . नाम रखा -रुस्तम नगर . बात शाहजहां तक पहुंची . भला एक अदना सा सूबेदार अपने नाम से नगर कैसे बसा सकता है. बादशाह ने रूस्तम खां को बुलवा भेजा . रूस्तम को भनक लग गयी थी .
रूस्तम नजराना लेकर दरबार में हाजिर हुआ. इधर उधर की बातों के बाद बादशाह सलामत ने पूछा ,”नये नगर का नाम क्या रखा है ?” रूस्तम खां ने छूटते हीं कहा, ” जाटों के साथ लोहा लेने में शाहजादा मुराद बख्स ने काफी दिलेरी दिखाई थी , इसलिए उनके नाम पर इस शहर का नाम मुरादाबाद रखा है.” शाहजहां बहुत खुश हुआ. उसने ढेर सारे इनामात देकर रुस्तम खां को वापस किया. इस प्रकार मेरा नाम रूस्तम नगर से मुरादाबाद हो गया .
मुरादाबाद में उस समय दो पुलिस चौकियां थीं- दमदमा कोठी व मुगलपुरा . मुगलपुरा चौकी का क्षेत्र काफी विस्तृत था . यह आज के नैनीताल जिले के मल्लीताल व तल्लीताल तक फैला हुआ था . गश्ती दल गश्त के लिए निकलता तो हफ्तों बाद वापस आता . मुगल पुरा आज भी मौजूद है ,पर अब उसका क्षेत्र कुछ हलकों तक हीं सीमित है.
मेरे प्रमुख पर्यटन स्थलों में अमरोहा, गजरौला और तिगरी आते हैं. अमरोहा की प्रसिद्धि आम व मछली से है . यहां आम व मछली बहुतायत में मिलता है. यहीं के बॉलीवुड के महान निर्माता निर्देशक कमाल अमरोही थे. गजरौला कुटीर व लघु उद्दोग के लिए जाना जाता है. तिगरी में कार्तिक पूर्णिमा वाले दिन गंगा मेला का आयोजन होता है . मेरे आस पास पुदीने की खेती होती है . इसलिए पुदीने का तेल यहां का मुख्य उत्पाद है.
मैं पीतल पर की गई हस्तशिल्प के लिए भी जाना जाता हूं. मेरे यहां के बने पीतल के बर्तन व शो पीस भारत में हीं नहीं बरन विदेशों में भी भेजे जाते हैं. पीतल की कलाकारी की मांग मध्य एशिया , संयुक्त राज्य अमेरिका ,जर्मनी ,कनाडा व इंग्लैण्ड में काफी है. इसीलिए एक नाम मेरा पीतल नगरी भी है.मेरे यहां मुगल वंश के बनाए हुए बहुत से स्मारक हैं. इनमें से नजीबुद्दौला का किला , मंदवार महल , जामा मस्जिद आदि प्रमुख हैं . इन्हें देखने के लिए दूर दूर से लोग आते हैं.आप भी आइए . मुझे अच्छा लगेगा.
मेरे यहां के हीं जिगर मुरादाबादी (1890-1960) थे, जिनका नाम गालिब,मीर व फिराक के साथ लिया जाता है. वे मुशायरों की जान थे . उनके शेर पढ़ने का अंदाज बडा़ निराला था. कई लोगों ने उस अंदाज को कॉपी करने की कोशिश की ,पर सफल नहीं हो पाए. वे भारत व पाकिस्तान में समान रुप से लोकप्रिय हैं.उन्हें पाकिस्तान में बुलाने के लिए बहुत से प्रलोभन दिए गये ,पर जिगर मुरादाबादी भारत छोड़कर जाने के लिए राजी नहीं हुए. उनका एक शेर प्रस्तुत कर मैं अपनी राम कहानी खत्म कर रहा हूं-
या वो थे खफा हमसे या हम थे खफा उनसे.
कल उनका जमाना था ,आज अपना जमाना है.(इंजीनियर एस डी ओझा के फेसबुक वाल से साभार )
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