-ध्रुव गुप्त
यक़ीन मानिए, नए साल में इस साल भी कुछ नया नहीं होने वाला है। सब वही रहेगा – वही समाज, वही देश, वही रहनुमा, वही सियासत, वही भ्रष्टाचार, वही आर्थिक अराजकता, वही महंगाई, वही सांप्रदायिकता, वही गाय और गोबर, वही हिन्दू-मुस्लिम, वही आतंकवाद, वही उग्रवाद, वही कश्मीर, वही पाकिस्तान। नए साल के स्वागत का अर्थ अगर शराबखोरी, ड्रग,सड़कों पर गुंडागर्दी, होटलों में डिस्कोबाजी, अश्लील नृत्य-गीत और भयभीत कर देने वाला हुडदंग है तो यह हमारी कुंठाओं और आंतरिक कलुष का सार्वजनिक प्रदर्शन भर है। नए साल की पूर्व संध्या पर बड़े-छोटे शहरों में जो होता है वह जश्न नहीं, अपसंस्कृति है। नए साल में अगर नया कुछ होना है तो हमारे भीतर ही होगा। चरित्रहीन और पथभ्रष्ट सियासत का मुंह ताकने के बज़ाय क्यों न इस साल बदलाव की शुरुआत हम अपने आप से ही करें ? कोशिश करें कि हमारे आसपास की दुनिया थोड़ी मुलायम, थोड़ी संवेदनशील, थोड़ी और खूबसूरत बनें ! राजनीति को ख़ुद पर इस क़दर हावी न होने दें कि वह हमारी वैचारिक स्वतंत्रता छीन ले या हमारी उदार सामाजिक संरचना ही तोड़ डाले। राजनेता तो आते-जाते रहेंगे, जीवन भर हम सबको ही साथ रहना है। क्यों न अविश्वास और नफ़रत की जगह हम आपसी प्यार, भाईचारा, अमन और समझ बढ़ाने की कोशिश करें। नए साल के स्वागत में अपनी बेशर्मी, अभद्रता या संवेदनात्मक दरिद्रता के प्रदर्शन की बज़ाय अपने आसपास की थोड़ी साफ-सफाई ही कर लें। थोड़े पेड़-पौधे लगाएं ! अपनी नदियों के साफ़ रखने का संकल्प लें। कुछ खाए-अघाए लोगों के साथ मस्ती करने की जगह अपनी छोटी-छोटी कुछ खुशियां उनके साथ बांटे जिन्हें उनकी वाक़ई ज़रुरत है। थोड़ी मुस्कान उन होंठों पर धरें जो अरसे से मुस्काना भूल गए हैं। जो रूठे हैं, उन्हें मना लें। बासी पड़ चुके रिश्तों में ताजगी भरें। तमाम मुश्किलों के बावज़ूद हमारी दुनिया अब भी खूबसूरत है। इसे महसूस करने के लिए नशे की नहीं, थोड़ी संवेदनशीलता की ज़रुरत है ! (ध्रुव गुप्त के फेसबुक वॉल से साभार)
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