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उत्तराखंड के चुनाव में पलायन जैसे जनता के मुद्दे गायब क्यों है?

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-डा.मोहन चन्द तिवारी

आज जब उत्तराखंड में चुनाव का बिगुल बज चुका है, सत्तारूढ़ और विपक्षी राजनैतिक दलों ने सत्ता हथियाने की होड़ में अपने अपने प्रत्याशियों को मैदान में उतार दिया है तो ऐसे समय में उत्तराखंड आंदोलन के लिए संघर्ष करते हुए अपना बलिदान देने वाले क्रान्तिकारी शहीदों की दिवंगत आत्माएं, वीरान पड़े गांवों के खंडरनुमा पुश्तैनी घर और कभी सोना उगलने वाले पूर्वजों के बंजर पड़े खेत इन चुनाव लड़ने वाले राजनैतिक दलों और इन्हें सत्ता में काबिज करने वाली यहां की जनता जनार्दन दोनों से यह सवाल पूछ रहे हैं कि कब पूरे होंगे उत्तराखंड राज्य के सपने? और कब मुक्त होगी पलायन के अभिशाप से उत्तराखंड की यह देवभूमि ?

आज चुनावों के इस राष्ट्रीय महोत्सव में एक जिम्मेदार लोकतंत्र के प्रति जागरूक सभी राजनैतिक दलों और निर्दलीय रूप से चुनाव लड़ने वाले समस्त प्रत्याशियों को अपने अपने क्षेत्र की जनता को जातिवाद, क्षेत्रवाद और एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप की घिनौनी राजनीति से भरमाने के बजाय अपने चुनावी घोषणा पत्र के माध्यम से उत्तराखंड राज्य के सपनों को पूरा करने वाले संकल्पों,वायदों के बारे में साफ तौर से खुलासा करना चाहिए। उन्हें जनता से वोट मांगने से पहले उत्तराखंड में आर्थिक बदहाली को दुरुस्त करने और पलायन रोकने से संबंधित कम से कम इन तीन खास मुद्दों के बारे में अपने नजरिए को स्पष्ट करना चाहिए-

1.पलायन को रोकने तथा बेरोजगारी और क्षेत्र की आर्थिक खुशहाली की योजनाओं के बारे में राजनैतिक दलों और प्रत्याशियों की नीति क्या होगी?

2.क्षेत्र की बदहाल शिक्षा व्यवस्था को सुधारने के सम्बन्ध में उनके द्वारा किए जाने वाले ठोस उपाय कौन कौन से होंगे?

3. दूर दराज के ग्रामीण इलाकों में नागरिकों को आवश्यक चिकित्सा की सुविधाएं मुहैया कराने के बारे में उनकी योजनाएं किस प्रकार की होंगी?

इस समय चुनाव के माहौल में उत्तराखंड से जुड़ा मिडिया भी दो खेमों में बंटा दिखाई देता है।एक खेमा जातिवाद और प्रान्तवाद के आधार पर चुनावी विश्लेषण कर चुनाव लड़ने वाले नेताओं की मदद कर रहा है तो दूसरा खेमा जनता के हितों को ध्यान में रखते हुए चुनावी मुद्दों का मूल्यांकन कर रहा है।

पर चिंता का विषय यह है कि कांग्रेस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियां जो सोलह साल से यहां बारी बारी से राज करती आई हैं राज्य की आर्थिक खुशहाली और पलायन रोकने का उनके पास कोई खास आर्थिक एजेंडा नहीं दिखाई देता है। इनके अलावा और दूसरे राजनैतिक दलों के पास भी ऐसी कोई रूपरेखा या रणनीति नहीं है जिससे उम्मीद की जा सके कि भविष्य में उत्तराखंड से पलायन पर अंकुश लगाया जा सकेगा। वर्तमान चुनावी माहौल का खाका खींचते हुए उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार हेम कांडपाल की यह चिंता सही है कि-“विचारों का संघर्ष जब सत्ता संघर्ष का उपादान बनता है तो विचारों की अकाल मौत हो जाती है। विचारधारा और सिद्धांत दफन हो जाते हैं ईमान और वफादारी दर किनार हो जाते हैं बचता है तो सिर्फ निजी स्वार्थ। और विधायकी का टिकट। अपने उत्तराखंड राज्य में यह सब चल रहा है और निराश जनता यह सब देख और समझ रही है। एक दल को जीवनभर गलियाने वालों को उसमें शामिल होकर जयकारे लगाने में थोड़ी भी शर्म नही है। भला होगी भी कैसे वह नया दल व्यक्ति के साथ-साथ उसके परिजनों को भी टिकट देकर गले लगा रहा है।”

उत्तराखंड में पलायन कैसे रुके ? इसकी चिंता राजनैतिक गलियारों में भले ही नहीं दिखाई दे रही हो किंतु पलायन आज एक ज्वलंत मुद्दा ही नहीं बल्कि नासूर का रूप धारण कर चुका है। उत्तराखंड आंदोलन से सरोकार रखने वाले ईमानदार पत्रकार इस मुद्दे को आज भी ताजा किए हुए हैं। कल दिनांक 28 जनवरी, 2017 को ‘राष्ट्रीय सहारा’ के ‘हस्तक्षेप’ परिशिष्ट में प्रकाशित एक लेख में वरिष्ठ पत्रकार जयसिंह रावत की यह चिंता जायज है कि पलायन की वजह से “पहाड़ी गांवों में हालत यह है कि किसी वृद्ध के मरने पर शव को श्मशान तक ले जाने के लिए चार युवा कंधे नहीं मिल पा रहे हैं। आदमियों की जगह वीरान गांवों में वन्यजीव अपना डेरा जमा रहे हैं।”

गौरतलब है कि उत्तराखंड राज्य का केवल 12 प्रतिशत भूभाग कृषियोग्य है। उसमें से भी 50 हजार हेक्टेयर से अधिक खेती की जमीन छोड़ कर लोग मैदानों की ओर पलायन कर चुके हैं। ये बंजर खेत कैसे आबाद होंगे इसकी चिंता किसी राजनैतिक दल को नहीं।किसी भी राज्य के लिए जमीन ही वह स्थायी रूप से आर्थिक संसाधन होता है जो युगों युगों तक पीढ़ी दर पीढ़ी आजीविका का मुख्य संसाधन भी होता है।पर उत्तराखंड राज्य का दुर्भाग्य रहा है कि पिछले 16 वर्षों में इसी कृषि व्यवसाय को चौपट करने का काम सभी राजर्नैतिक दलों ने मिलजुल कर किया है।पहाड़ों से पलायन की एक मुख्य वजह है शिक्षा और चिकित्सा सुविधाओं का घोर अभाव जिसकी जिम्मेदारी भी सरकार पर आती है। पिछले वर्षों में कुछ शहरी इलाकों में अस्पताल खोले अवश्य गए मगर वहां डॉक्टर और चिकित्सा सुविधाएं नदारद ही हैं।

उत्तराखंड सरकार के लिए यह भी गंभीर चिंता का विषय होना चाहिए कि जब से नए राज्य का गठन हुआ है तब से लेकर उत्तराखंड के 2 लाख 80 हजार 615 मकानों पर ताले लग चुके हैं। राज्य बनने के बाद 16 सालों में 32 लाख लोगों ने पहाड़ से पलायन किया है, 650 गांव आपदाग्रस्त घोषित हैं, 5000 गांव सड़कों की सुविधा से वंचित हैं। 750 स्कूलों के भवन जर्जर अवस्था में हैं, 2344 प्राथमिक और जूनियर हाई स्कूल छात्रों के अभाव में बंदी के कगार पर हैं।

राज्य की ऐसी बदहाल स्थिति के बाद भी सरकार और उत्तराखंड के विपक्षी दलों द्वारा इस पलायन और विस्थापन पर इस चुनावी दौर में मौन साधे रहना न केवल उत्तराखंड राज्य आंदोलन के प्रति घोर विश्वासघात है बल्कि एक लोकतांत्रिक राज्य की राजनैतिक विश्वसनीयता, वहां की भाषा व लोक संस्कृति के क्षरण और वहां के प्राकृतिक संसाधनों के सही सदुपयोग पर भी अनेक गंभीर सवाल पैदा करता है।

दरअसल, नवंबर,2000 में उत्तराखंड राज्य की संकल्पना चिर प्रतीक्षित लोक कल्याणकारी राज्य के सपनों को पूरा करने और पलायन को रोकने के मकसद से ही हुई थी न कि इसे और विकराल रूप देकर यहां से आम जनता को भगाने के लिए। आज राज्य का अपना सारा बजट ठेकेदार माफियों और शराबमाफ़ियों के जेब में जा रहा है जिसकी वजह से रोजगार के धंधे समाप्त हो गए हैं, शिक्षा,स्वास्थ्य की हालत बदहाली के दौर से गुजर रही है। लोग मूलभूत सुविधाओं के लिए जूझ रहे हैं और उनके न मिलने से पलायन के लिए मजबूर हैं। रही सही कसर जंगली जानवरों ने पूरी कर दी है। वानरों और सुअरों द्वारा चौपट होती खेती इन दिनों पहाड़ वालों के लिए भारी मुसीबत बनी हुई है। केन्द्र सरकार हो या राज्य सरकार कोई भी राजनेता इस समस्या को सुनने के लिए तक तैयार नहीं। यही कारण है कि अब यह पलायन का मुद्दा महज एक राजनैतिक मुद्दा नहीं रह गया है बल्कि मानवाधिकार के मूल्यों की रक्षा और अपनी सांस्कृतिक पहचान खोने के संकट से जुड़ा राष्ट्रीय मुद्दा भी बनता जा रहा है।

उत्तराखंड के जाने माने वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश जुगरान ने अपनी टाइम लाइन में उत्तराखंड के हालातों की दशा और दिशा का दो टूक विश्लेषण करते हुए सही लिखा है कि “यहां बारी-बारी से सत्ता संभाल रही कांग्रेस और भाजपा के बेईमान और अकर्मण्य नेताओं की पलटन ने सिवा समस्याओं का पहाड़ खड़ा करने के कुछ नहीं किया। न स्थायी राजधानी का सवाल हल हुआ, न ठोस भूमि कानून अमल में आया, न खेती सुधार के कार्यक्रम बनें, न पुनर्वास की दशाएं तय हो सकीं और न बेरोजगारी व पलायन के संत्रास मिट पाए। यह राज्य नेताओं और नौकरशाहों के पापों का बेताल ढोते-ढोते बहुत दूर निकल आया है। यहां से परिवर्तन की यात्रा बहुत कठिन है।”

विडंबना यह भी है कि चुनावों के अवसर पर इन राजनैतिक पार्टियों ने सस्ते अनाज को मुद्दा बनाकर और दूसरे घटिया तरीकों से लोगों से वोट मांगने की कुनीति ने भी उत्तराखंड को बर्बाद करके रख दिया है।केन्द्र सरकार की तरफ से चलाया गया सस्ता अनाज बांटने का अभियान गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले लोगों के लिए भले ही अस्थायी रूप से राहतपूर्ण कदम हो सकता है किन्तु इस हमदर्दी भरे प्लान से निर्धन और असहाय लोगों को केंद्र सरकार की ओर से दी गई सस्ते अनाज की सौगात बाँट कर यदि राजनेता अपना वोट बैंक मजबूत बनाए रखना चाहते हैं तो इससे शर्मनाक बात और कुछ हो नहीं सकती। यह भी एक कारण है खेती बाड़ी चौपट होने के कारण श्रम व मजदूरी करके जीविका कमाने वाले स्वाभिमानी लोग दूसरे शहरों में पलायन के लिए मजबूर हुए हैं।

पिछले कुछ वर्षों से चाहे स्थानीय पहाड़वासी हों या दूरदराज इलाकों में रहने वाले मैदानों के प्रवासी जन राज्य सरकारों की लापरवाही और भ्रष्ट प्रशासन की वजह से पलायन के अभिशाप की पीड़ा झेलने के लिए विवश हुए हैं। जो पहाड़ों से पलायन करके प्रवासी हो गए वे दिल्ली आदि महानगरों में बैठकर अपनी लोकसंस्कृति को बचाने के लिए आज भी चिंतित और प्रयत्नशील हैं मगर दूसरी ओर पहाड़ों में बसे वे लोग जो अपनी पुश्तैनी खेतीबाड़ी छोड़कर सरकारी अनुदान से दो रुपया किलो गेहूं और तीन रुपया किलो चावल के सरकारी अनाज से गुजर बसर कर रहे हैं, रोजगार, अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य आदि मौलिक अधिकारों से वंचित होने के कारण निरीहता का जीवन जी रहे हैं, वे भी जंगली जानवरों और समय समय पर होने वाले प्राकृतिक आपदाओं से भयभीत हो कर मजबूरी में अपने दिन काट रहे हैं।

पहाड़वासी और प्रवासी दोनों ही इस पलायन पीड़ा से संतप्त हैं एक अपनी मातृभूमि की दुरवस्था से तो दूसरा उसके बिछोह की पीड़ा से। फिर भी जो इस समय अपने पुण्यों के प्रताप से पहाड़ में रह रहे हैं तथा चुनावों में वोट देने का संवैधानिक अधिकार जिन्हें प्राप्त है उनकी ही मुख्य जिम्मेदारी बनती है इस चुनाव में ईमानदार, और समाज के प्रति समर्पित जन प्रतिनिधियों को चुनना और आने वाले समय में ऐसी सरकार को सत्ता में लाना जो उत्तराखंड राज्य के सपनों को पूरा कर सके,पलायन पर अंकुश लगा सके और भ्रष्टाचार और शराब माफ़ियों से प्रशासन को मुक्त कर सके। 16 साल पहले उत्तराखंड राज्य के जो सपने हम सब ने देखे थे क्या वे पूरे हो सकेंगे? वर्तमान चुनावों के दौर में इसकी जवाबदेही चुनाव लड़ने वाले राजनैतिक दलों और चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों की ही नहीं बल्कि मुख्य जिम्मेदारी वोट देने वाले मतदाताओं की भी है।
(फेसबुक वॉल से साभार)

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