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स्वतन्त्रता दिवस की 70वीं वर्षगांठ की मंगल कामना !

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-डा.मोहन चंद तिवारी

हे पुण्य राष्ट्र देवता, तुम्हें नमस्कार, नमस्कार।
विविधता में एकता, तुम्हें नमस्कार, नमस्कार।
“पुण्ये राष्ट्रदेवते, वन्दनं ते वन्दनम्।
विविधतायामेकते,वन्दनं ते वन्दनम्।।”

सुप्रभात मित्रो ! स्वतन्त्रता दिवस की मंगल कामना ! आज समूचा देश स्वतन्त्रता दिवस की 70वीं वर्षगांठ मना रहा है। आज के ही दिन 15अगस्त,1947 को भारत आजाद हुआ और ‘भारतराष्ट्र’ के रूप में उसे पुनर्जन्म भी मिला। भारत एक पुरातन राष्ट्र है। वैदिक संहिताओं में राष्ट्र की अवधारणा का पूर्ण विकास हो चुका था। परन्तु शताब्दियों की पराधीनता के कारण अपने ही देश की राष्ट्रविषयक मान्यताओं को देशवासी भूलते गए। पश्चिमी उपनिवेशवादियों द्वारा थोपी गई ‘नैशनलिटी’ की मान्यताएं नस्लवाद,जातिवाद, प्रांतवाद और सम्प्रदायवाद से प्रेरित होने के कारण भारतीयों को यह अहसास कराती रहीं कि वे एक राष्ट्र नहीं हैं बल्कि एक जाति,सम्प्रदाय अथवा किसी प्रान्त विशेष से सम्बद्धता ही उनकी वास्तविक पहचान है। वेदों में राष्ट्र की जो परिभाषाएं मिलती हैं उनमें धर्म, जाति, और प्रांतवाद का कोई आग्रह नहीं है, अपितु धार्मिक सद्भावना, सामाजिक समरसता और पारस्परिक सौहार्द की भावना को ‘राष्ट्र’ की परिभाषा में सर्वोपरि स्थान दिया गया है।

दरअसल, वंश, प्रजाति, नस्ल, धर्म, मजहब, भाषा, प्रान्तवाद आदि राष्ट्र की इन पश्चिमी तथा संकीर्ण परिभाषाओं को हजारों वर्ष पहले अथर्ववेद के काल में ही निरस्त कर दिया गया था और राष्ट्र की अत्यन्त सार्वकालिक ‘सैक्यूलर’ परिभाषा देते हुए कहा गया है – ‘राष्ट्र उसे कहते हैं जहां विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले तथा विविध धर्मों को मानने वाले लोग मिलजुल कर एक कुटुम्ब की भांति रहते हैं’-
“जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्”

युगचिन्तकों तथा समकालीन संस्कृत कवियों ने विभिन्न युगों में इसी राष्ट्रमंत्र की देशकालानुसारी व्याख्या करके भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा को पल्लवित और पुष्पित किया है और विविधता में एकता के राष्ट्रवादी विचार को जन जन तक पहुचाया है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिरहुसैन कालेज की पूर्व एसोसिएट प्रोफेसर, वैदिक साहित्य की परम विदूषी तथा संस्कृत कवयित्री डा. प्रवेश सक्सेना की ‘राष्ट्रदेवता’ शीर्षक से लिखी गई आलोच्य रचना ‘भारत राष्ट्र’ के उसी वेदानुमोदित उदात्त स्वरूप को उद्घाटित करती है जिसमें एक ओर वैदिक राष्ट्र की उद्भावना अभिव्यंजित हुई है तो दूसरी ओर उत्तरवर्ती काल की ‘राष्ट्र’ विषयक अवधारणा को काव्यमय शैली में प्रस्तुत किया गया है। मैं ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ पर कक्षा में अपने छात्रों को व्याख्यान देते हुए डा. सक्सेना की इस कविता की पंक्तियों की प्रायः चर्चा करता आया हूँ।

कई बार कवि किसी कठिन विषय को जितनी आसानी से समझा देता है उतनी आसानी से विद्वान नहीं समझा पाते हैं।वैसे भी भारत का राष्ट्रवाद कोई जटिल बौद्धिक आयाम नहीं बल्कि एक सरल और सहज मानवीय दृष्टिकोण है जिसे डा.प्रवेश सक्सेना ने बहुत सरल और सहज संस्कृत शब्दावलियों द्वारा कविता के माध्यम से समझाने का प्रयास किया है। इस सरल रचना को संस्कृत नहीं जानने वाले सामान्य जन भी आसानी से समझ सकते हैं।आशा है आज स्वतंत्रता दिवस के पावन अवसर पर जिस ‘राष्ट्रदेवता’ का ‘भारतपर्व’ के रूप में हम राष्ट्रीय महोत्सव मना रहे हैं उसी को नमन करती डा. प्रवेश सक्सेना की ‘राष्ट्रदेवता’ शीर्षक से लिखी गई इस रचना का फेसबुक के मित्र स्वागत करेंगे–
*राष्ट्रदेवता*
पुण्ये राष्ट्रदेवते,
वन्दनं ते वन्दनम्।
भुवः सहनशीलता
व्योमनः सुविशालता।
वायुवेग-तीव्रता
जलस्य मधुसांद्रता।।
अग्ने: तेजस्विता
सर्वाः त्वयि सञ्चिताः।।
पंचतत्त्वविनिर्मिते
वन्दनं ते वन्दनम्।।
धान्ये त्वं मधुभरे
वृक्षस्य पर्णे पर्णे
पुष्पाणां स्मितिवर्णे
सुफलानां ऐश्वर्ये
वने वने उपवने
शस्ये श्याम-वर्णे
कणे कणे विराजिते
करोमि ते अभिनन्दनम्।।
मन्दिरे च मस्जिदे
गुरोश्चर्च स्थले
बौद्धस्य मठे मठे
त्वम् जिनस्य आलये
प्रति धर्मं प्रति मतं
त्वमसि तीर्थे तीर्थे
विविधतायामेकते,
वन्दनं ते वन्दनम्।।
श्रद्धया सुपूरिते
स्नेहरसै: प्रपूरिते
जनगणस्य मानसे
त्वयि संप्रतिष्ठिते
तव मधुर गीतिरते
रसभरे मधुस्वरे
धारणाय मस्तके
मृत्तिका ते चंदनम्।।
युद्धे त्वमसि शक्तिः
त्वमसि भुक्तिः मुक्तिः।
भक्तस्यासि भक्तिः
मधुरा कवेरुक्तिः।
श्रान्ताय विश्रान्तिः
त्वमेव परा शान्तिः।
अयि, वरदे शोभने,
वन्दनं ते वन्दनम्।।
– डा. प्रवेश सक्सेना रचित ‘राष्ट्रदेवता’ नामक संस्कृत-कविता-संग्रह,(जे पी पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली,2001) से साभार ग्रहीत
स्वतन्त्रता दिवस की शुभकामनाओं सहित !

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