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कब पूरे होंगे आजादी के सपने और कब मिलेगा देश को पूर्ण स्वराज ?

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–डा.मोहन चन्द तिवारी

॥स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर॥

“ जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी ”

॥ चिन्ता का विषय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 69 वर्षों के बाद भी आज देश में सम्प्रदायवाद, जातिवाद, प्रांतवाद के साथ साथ वर्ग-संघर्ष और आर्थिक विषमता का जो द्वन्द्व युद्ध चल रहा है उसके कारण धार्मिक सहिष्णुता एवं आम सहमति की भावना समाज से गायब होती जा रही है। विडम्बना यह भी है कि जिन प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया था वे स्वराज के मूल्य आज वोटतंत्र की राजनीति में कहीं लुप्त होते जा रहे हैं॥
आज समूचा देश स्वतंत्रता दिवस की 70 वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है। इस अवसर पर भारत सरकार की ओर से 12 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस समारोह के उपलक्ष्य में दिल्ली के राजपथ पर रंगारंग कार्यक्रम के साथ ‘भारत पर्व’ का शुभारंभ किया गया। रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर ने इंडिया गेट पर गुब्बारे छोड़कर ‘भारत पर्व’ उत्सव का शुभारंभ किया। हफ्ते भर चलने वाला ‘भारत पर्व’ का यह आयोजन 18 अगस्त तक चलेगा। इसमें देश के कोने-कोने से आए लोक कलाकार भी अपने सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रदर्शन कर रहे हैं। इस समारोह को आयोजित करने का मुख्य उद्देश्य बताया गया है लोगों में देशभक्ति की भावना पैदा करना, देश की समृद्ध सांस्कृतिक विविधिता को प्रोत्साहित करना और उसके निर्माण में आमजन की व्यापक भागीदारी को सुनिश्चित करना है। ‘भारत पर्व’ के लिए 17 राज्यों की कला और संस्कृति को प्रदर्शित करते हुए पवेलियन सजाए गए हैं‚ इनमें तमाम तरह के हैंडीक्राफ्ट और कपड़े बेचे जा रहे हैं। अलग-अलग राज्यों के खानपान के स्टॉल भी लगाए गए हैं, लेकिन इन सभी स्टॉलों में राजधानी दिल्ली की भागीदारी नहीं होना कहीं न कहीं जरूर खलता है और हमारी राष्ट्रीय सहभागिता तथा आम सहमति की नीयत पर प्रश्नचिन्ह भी लगा देता है।
दरअसल‚15 अगस्त, 1947 के स्वतंत्रता दिवस का दिन हमारे लिए वह सौभाग्यशाली दिन है जब विदेशियों की दासता से मुक्त होकर हमारा देश स्वाधीन राष्ट्र बना। उस दिन अंग्रेज शासक जो हमारे समग्र राष्ट्र को अपने पाशविक प्रशासन से जकड़े हुए थे, पराजित हो कर चले गए और हम सभी भारतीय परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कर दिए गए। बहुत दीर्घ काल तक चले इस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के समर में हजारों की संख्या में स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने प्राणों की बलि दे दी, अंग्रेजी शासन के विरुद्ध संघर्ष करते हुए युवावर्ग ने जीवन के अनेक वसंत अंग्रेजों की काल कोठरी में बिता दिए, देश के कोने कोने से आकर महिलाओं, युवाओं, वृद्धों ने इस आजादी की लड़ाई को नेतृत्व दे रहे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के स्वतंत्रता आन्दोलन को तन मन धन से सहयोग दिया। हिन्दू हो या मुसलमान, सिख हो या ईसाई, जैन हो या बौद्ध सभी धर्मानुयायियों की इस स्वतंत्रता प्राप्ति के युद्ध में समान रूप से भागीदारी रही है तथा इसी राष्ट्रव्यापी जन आन्दोलन के फलस्वरूप हमें 15 अगस्त, 1947 के दिन लालकिले की प्राचीर पर तिरंगा झंडा फहराने का अवसर मिला। इसलिए यह दिन स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने और उसके निमित्त अपने प्राण न्योछावर करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने, उन्हें नमन करते हुए श्रद्धांजलि देने का पुण्यकारी दिन भी है।

चिन्ता का विषय है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के 69 वर्षों के बाद भी आज देश में सम्प्रदायवाद, जातिवाद, प्रांतवाद के साथ साथ वर्ग-संघर्ष और आर्थिक विषमता का जो द्वन्द्व युद्ध चल रहा है उसके कारण धार्मिक सहिष्णुता एवं आम सहमति की भावना समाज से गायब होती जा रही है। विडम्बना यह भी है कि जिन प्रजातांत्रिक मूल्यों के लिए स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया था वे स्वराज के मूल्य आज वोटतंत्र की राजनीति में कहीं लुप्त होते जा रहे हैं। हमारे देश की अधिकांश राजनैतिक पार्टियां चाहे वे राष्ट्रीय स्तर की हों या क्षेत्रीय ब्रिटिश कालीन छद्म धर्म निरपेक्षता, सम्प्रदायवाद, जातिवाद तथा अल्पसंख्यकवाद की विभाजनकारी राजनैतिक मूल्यों से ग्रस्त होकर वोटतंत्र की फसल काटने में लगी हुई हैं जिसके कारण गांधी जी के पूर्ण स्वराज का सपना पूरा होने की संभावनाएं भी धूमिल होती जा रही हैं। महात्मा गांधी ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा पोषित उन राजनैतिक अवधारणाओं को स्वतंत्रता तथा स्वराज का घोर विरोधी मानते थे जिनकी वजह से भारतवासी दासता का दंश झेलते आए हैं। इसलिए गांधी जी भारतराष्ट्र के स्वदेशी मूल्यों के आधार पर लोकतांत्रिक संस्थाओं और आर्थिक नीतियों को नई दिशा देना चाहते थे ताकि यह देश पूर्ण रूप से स्वावलम्बी बन सके।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1950 में प्रो इन्द्र ने संस्कृत भाषा में रचित ‘गांधी-गीता’ (अहिंसायोग) के नाम से आधुनिक गीता की रचना की है। अठारह अध्यायों में लिखी इस संस्कृत रचना का इतिवृत्त सर्वथा आधुनिक है। इस आधुनिक गीता में कृष्ण की भांति स्वतंत्रता आंदोलन के सेना नायक महात्मा गांधी अर्जुन की भांति बाबू राजेन्द्र प्रसाद को प्रजातंत्र सम्बन्धी शंकाओं का निराकरण करते हुए समझाते हैं कि ‘प्रजातंत्र में प्रजा का, प्रजा के द्वारा, प्रजा के लिए शासन व्यवस्था होती है और उस प्रजातंत्र का मुखिया भी वस्तुत: प्रजा का मुख्य सेवक ही कहलाता है’-

” प्रजाया: प्रजया तस्मिन्, प्रजायै शासनं भवेत्।
अशेषजनकल्याणं, तदुद्देश:शुभो भवेत्।।
तद्राष्ट्रस्य महाध्यक्षो, विज्ञातो राष्ट्रनायक:।
नृपतिर्वा प्रजाया: स्यात्, यथार्थो मुख्यसेवक: ।। ” – गांधी-गीता, 18.24-25

विडम्बना यह है कि लम्बे संघर्ष और हजारों स्वतंत्रता सेनानियों के आत्म बलिदान के फलस्वरूप प्राप्त आजादी आज चन्द हाथों तक सिमट कर रह गई है। भारतीय संविधान में कल्याणकारी राज्य की जो रूपरेखा डॉ अम्बेडकर ने निर्धारित की थी, शासन तंत्र उसे पूरा करने में विफल रहा है। ‘गांधी-गीता’ के अनुसार प्रजातांत्रिक रामराज्य में एक तरफ अकूत सम्पत्ति नहीं होती और दूसरी तरफ अकिंचनता का कारुणिक दृश्य नहीं दिखाई देता जैसा कि आज भारत में दिखाई दे रहा है। अमीर पहले से ज्यादा अमीर हो रहे हैं तथा गरीबों, मजदूरों और किसानों की दशा बदतर होती जा रही है। पिछले दस-बारह वर्षों से सरकार की आर्थिक नीतियों से जिस प्रकार देश में बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार के आंकडों में निरन्तर रूप से वृद्धि हुई है, उससे संविधान सम्मत कल्याणकारी राज्य की अवधारणा खण्डित हुई है तथा बिजली, पानी, खाद्यान्न से लेकर स्वास्थ्य, शिक्षा, महिला सुरक्षा जैसी आम आदमी की समस्याओं के प्रति जन आक्रोश का स्वर भी तीखा होता जा रहा है, यह भारत जैसे अत्यन्त प्राचीन और समृद्ध लोकतांत्रिक देश के लिए चिन्ता की बात है।

तो ऐसे संकट काल में आज स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर वेदों और उपनिषदों से ऊर्जा ग्रहण करने वाली ‘भारतराष्ट्र’ की अवधारणा के वास्तविक मायने समझने की जरूरत है। अपने उद्भव काल से ही ‘भारतराष्ट्र’ का राष्ट्रवाद वैदिक राष्ट्र के ‘माइन्ड सैट’ से निर्मित हुआ ऐसा राष्ट्रवाद है जिसमें छद्म धर्म निरपेक्षता अथवा कट्टर पंथी पश्चिमी राष्ट्रवाद के लिए कोई जगह नहीं है। राजनैतिक स्वार्थों के कारण जब भी बहुलतावाद के पोषक भारतीय राष्ट्रवाद पर आक्रमण होता है तो सर्वाधिक कष्ट आम जनता को उठाने पड़ते हैं तथा स्वतंत्रता की मूल अवधारणा को खंडित करना इस साम्राज्यवादी राष्ट्रवाद का मकसद रहता है।

दरअसल, वंश, प्रजाति, नस्ल, धर्म, मजहब, भाषा, प्रान्तवाद आदि राष्ट्र की इन पश्चिमी तथा संकीर्ण परिभाषाओं को हजारों वर्ष पहले अथर्ववेद के काल में ही निरस्त कर दिया गया था और राष्ट्र की अत्यन्त सार्वकालिक ‘सैक्यूलर’ परिभाषा देते हुए कहा गया है – ‘राष्ट्र उसे कहते हैं जहां विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले तथा विविध धर्मों को मानने वाले लोग मिलजुल कर एक कुटुम्ब की भांति रहते हैं’-
“जनं बिभ्रती बहुधा विवाचसं नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्”

भारतवर्ष का हजारों वर्षों का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक इतिहास साक्षी है कि असीम विविधताओं में एकता का मूल मंत्र वैदिक काल में ही ‘एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति’ के रूप में प्रकट हो चुका था। युगचिन्तकों ने विभिन्न युगों में इसी मंत्र की देशकालानुसारी व्याख्या करके भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा को पल्लवित और पुष्पित किया है और ग्रामस्वराज की अवधारणा से स्वतंत्रता के वास्तविक लाभों को जनजन तक पहुचाया है।।
इतिहास साक्षी है कि भारत में पिछले पांच हजार वर्षों से स्थानीय ग्राम सभाओं, नगर सभाओं एवं पंचायतीराज प्रणाली से राज-काज चलाया जाता रहा है। भारत ही नहीं स्विट्जरलैंड, ब्राजील, और अमेरिका में आज भी स्थानीय स्तर की प्रशासनिक व्यवस्था के द्वारा आम जनता की भागीदारी से राज-काज चलाने की परम्परा कायम है। भारत में हजारों वर्षों से आपसी बहस से आम सहमति बनाकर लोकतंत्र चलाने की एक दीर्घ कालीन परम्परा रही है। वैदिक काल में ‘सभा’ और ‘समिति’ ऐसी ही लोकतांत्रिक राज्य संस्थाएं थीं जिनका निर्णय मानना राजा के लिए अनिवार्य होता था। इन संस्थाओं की इतनी शक्ति थी कि वे राजा को भी अपने सिंहासन से पदच्युत कर सकती थीं। उधर बौद्ध परम्परा तथा जैन परम्परा ने गणतांत्रिक शासनप्रणाली का स्वर्णिम इतिहास कायम किया है।

‘महापरिनिर्वाणसुत्त’ नामक बौद्धग्रन्थ में प्राचीन भारतीय गणतांत्रिक प्रणाली का महत्त्वपूर्ण संदर्भ मिलता है जिसके अनुसार लिच्छवी गणराज्य में निरन्तर रूप से आम सभाएं होती थीं। भारतीय इतिहास में स्थानीय स्तर पर लोकतंत्र को मजबूत करने वाली ऐतिहासिक मिसाल सातवीं शताब्दी के कांचीपुरम जिले में स्थित ‘उत्तीरामेरु’ नामक मन्दिर की दीवार पर टंकित भित्ती अभिलेख में पूर्ण स्वराज को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली ग्रामसभा तथा स्थानीय प्रशासन की कार्य प्रणाली का संविधान खुदा हुआ है, जिसके अनुसार चुनाव लड़ने की आवश्यक योग्यता, चुनाव की विधि, चयनित उम्मीदवारों का कार्यकाल, उम्मीदवारों के अयोग्य ठहराए जाने की परिस्थितियां तथा आम आदमी के अधिकारों की भी चर्चा है जिसके तहत लोग अपने जनप्रतिनिधि को वापस भी बुला सकते थे यदि वह अपनी जिम्मेदारियों का ठीक से निर्वहन नहीं करता था।
‘स्वतंत्रता’ विषयक इन्हीं चिन्ताओं और संवेदनाओं के साथ स्वतंत्रता प्राप्ति के समर में हजारों की संख्या में अपने प्राण न्योछावर करने वाले भारत माता के सपूतों को हार्दिक श्रद्धांजलि और कोटि कोटि नमन तथा समस्त देशवासियों को स्वतंत्रता दिवस की 70वीं वर्षगांठ पर हार्दिक शुभकामनाएं।

जयहिन्द ! जयभारत !

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