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उत्तराखंड के धधकते जंगल-पर्यावरण का भीषण संकट

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-डा.मोहन चंद तिवारी

हर साल पहाड़ के जंगलों में आग लगती है। लेकिन इसे आर्थिक और पारिस्थितिकी के नजरिए से कभी नहीं देखा जाता। अव्यावहारिक वन कानूनों ने वनोपज पर स्थानीय निवासियों का अधिकार खत्म कर दिया है और उस पर टिम्बर माफिया और लीसा ठेकेदार हावी हैं। इस वजह से ग्रामीणों और वनों के बीच की दूरी बढ़ी है। जंगलों से आम आदमी का सदियों पुराना रिश्ता कायम किए बिना जंगलों को आग और इससे होने वाले नुकसान से बचाना सरकार और वन विभाग के बूते से बाहर होता गया है। इस संकट की घड़ी में समाचार देने वाले पत्रकार बंधु तक अपना वीडियो कैमरा एक ओर रखकर जंगलों की आग बुझाने में हाथ बंटा रहे हैं किन्तु वन विभाग तथा राज्य प्रशासन अपने संवैधानिक दायित्व निभाने में लापरवाह सिद्ध हुआ है। दूसरी ओर विभिन्न राजनैतिक दल एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप मढ़ते हुए इस आग पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने में लगे हैं। यही है उत्तराखंड के जंगलों में लगी हुई भीषण आग की जमीनी हकीकत॥

समूचे उत्तराखंड के जंगल पिछले 91 दिनों से भीषण आग से धधक रहे हैं। उत्तराखंड का लगभग 25,52 हेक्टेयर क्षेत्र आग की चपेट से तबाह हो गया है। अब तक 7 लोगों की मौत हो चुकी है। पूरे राज्य में हाई अलर्ट है। प्रशासन द्वारा उत्तराखंड की जंगलों में लगी हुई भीषण आग पर क़ाबू पाने के लिए एनडीआरएफ की टीमों को पौड़ी गढ़वाल, अल्मोड़ा और चमोली के तीन जिलों के 13 प्रभावित इलाकों में लगाया गया है। वायुसेना के दो हेलिकॉप्टरों को भी आग बुझाने के काम पर लगाया गया है जो भीमताल की झील से पांच हजार लीटर पानी भरकर भीषण आग पर काबू पाने के लिए जुटे हुए हैं किन्तु आग पर काबू पाने में कई प्रकार की दिक्कतें आ रही हैं। अत्यधिक धुएं के कारण हेलिकॉप्टर प्रभावित क्षेत्रों तक नहीं पहुंच पा रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार आग ने इतना विकराल रूप धारण कर लिया है कि अब तक उत्तराखंड के तीन हजार हेक्टेयर क्षेत्र में फैली आग के कारण उत्तरप्रदेश के सीमावर्ती इलाकों में हाई अलर्ट जारी कर दिया गया है। इस आग की वजह से सीमावर्ती क्षेत्रों में जंगली जानवरों के घुसपैठ की आशंका बढ़ गई है।
उत्तराखंड के साथ ही जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के विभिन्न इलाकों से भी आग लगने की घटनाएं सामने आ रही हैं। रविवार को जम्मू-कश्मीर के राजौरी वन विभाग में आग लग गई। वहीं, शिमला में 12 वन विभागों में आग लगने की घटनाएं सामने आई हैं। ऐसा लगता है केवल उत्तराखंड ही नहीं समूचे हिमालयीय राज्य इस दावानल रूपी प्राकृतिक प्रकोप से धधक रहे हैं। किन्तु सबसे भयावह स्थिति इस समय राष्ट्रपति शासन के दौर से गुजर रहे उत्तराखंड राज्य की है।

गम्भीर चिंता का विषय है कि उत्तराखंड में इस वक्त लगभग 45 प्रतिशत जंगल आग की चपेट में है। आग से वन संपदा और जैव विविधता को भारी नुकसान पहुंचा है। हिमालय क्षेत्र में उत्पन्न होने वाली दुर्लभ वनस्पतियों की प्रजातियां आग की लपटों में स्वाहा हो चुकी हैं। टाइगर रिजर्व का भी लगभग 160 हेक्टेयर जंगल का क्षेत्र आग से प्रभावित है, जिससे बाघों के जीवन पर भी खतरा बढ़ गया है। जिम कार्बेट सहित तीन नेशनल पार्क भी आग की चपेट में आ चुके हैं। आग से पहाड़ का तापमान चार-पांच डिग्री बढ़ गया है। वन्य जीव जान बचाने के लिए इधर-उधर भाग रहे हैं। फरवरी से मार्च तक पेड़ों पर नए पत्ते व कोपल आते ही कीटों की भरमार हो जाती है। कीटों के बढ़ने के कारण पक्षी इस समय को अपने प्रजनन काल के लिए सबसे उपयुक्त मानते हैं। आमतौर पर 90 फीसदी पक्षी प्रजाति अप्रैल से लेकर जून तक जमीन व झाड़ियों में अंडे देती हैं। इसी दौरान जंगलों में धधक रही आग से इनके अस्तित्व पर ही संकट आ गया है।

अभी आग से हुई क्षति का पूरी तरह से आकलन नहीं हुआ है किंतु जो खबरें मिल रहीं हैं उसके अनुसार कई इलाकों में बीएसएनएल की केबिल जल गई है। आग में कई पशुओं के मरने और झुलसने की खबर है। वन क्षेत्रों की कई नर्सरियां जल गई हैं। जंगलों में शाक और झाड़ियों के जलने से पानी के स्रोत सूखने लगे हैं। भू कटाव बढ़ने और पेड़ों के विकास पर बुरा असर पड़ने की आशंका है। इससे भविष्य में पर्यावरण पारिस्थितिकी का भीषण संकट उत्पन्न हो सकता है तथा ‘ग्लोबल वार्मिंग’ से प्रभावित हिमालय ग्लेशियर केदारनाथ त्रासदी जैसी प्राकृत आपदा को उत्पन्न कर सकते हैं। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की पहल पर होने वाले आईआईटी कानपुर द्वारा किए गए एक ताजा रिसर्च प्रोजेक्ट के अध्ययन से पता चला है कि गंगा और अलकनंदा नदी के पानी के स्रोत वाले ‘सतोपंत’ और ‘गोमुख’ नामक हिमालय के ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं।इसका बड़ा कारण ग्लोबल वार्मिंग है। इससे वैज्ञानिक चिंतित हैं तथा देश के लिए यह बड़ी चेतावनी है। वैज्ञानिकों ने कहा है कि अगर यही हाल रहा तो अगले कुछ वर्षों में ग्लेशियर ही खत्म हो जाएंगे। इनसे नदियों को पानी नहीं मिल पाएगा और जल संकट और गहरा जाएगा।

उत्तराखंड का भौगोलिक क्षेत्रफल 53483 वर्ग किलोमीटर है। इसमें 64.79 फीसद यानि 34651.014 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र है। 24414.408 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र जंगलात विभाग के नियंत्रण में है। वन विभाग के नियंत्रण वाले वन क्षेत्र में से करीब 24260.783 वर्ग किलोमीटर आरक्षित वन क्षेत्र है। बाकी 139.653 वर्ग किलोमीटर जंगल वन पंचायतों के नियंत्रण में हैं। वन विभाग के नियंत्रण वाले जंगलों में से 394383.84 हेक्टेयर में चीड़ के जंगल हैं, 383088.12 हेक्टेयर में बांज के वन हैं तथा 614361 हेक्टेयर में मिश्रित जंगल है। चीड़ के जंगल आग के मामले में अत्यंत संवेदनशील होते हैं। चीड़ की सूखी पत्तियां जिसे स्थानीय भाषा में ‘पिरूल’ कहते हैं आग में घी का काम करती हैं।

पहाड़ के जंगलों में आग लगना एक स्थायी समस्या रही है। 2005 से 2015 के बीच कुमाऊं में वनों में आग लगने की करीब 2238 घटनाएं दर्ज की गईं। इसमें तकरीबन 5356.77 हेक्टेयर वन आग की भेंट चढ़ गए थे। आग की इन घटनाओं में करोड़ों रुपए मूल्य की वन संपदा प्रतिवर्ष जलकर स्वाहा हो जाती है किंतु राज्य सरकार और वनविभाग की लापरवाही से इस आपदा का कोई समाधान नहीं निकल सका है। जंगलों को आग से बचाने की बुनियादी जिम्मेदारी वन विभाग की है। वनों को आग से सुरक्षित रखने के लिए तथा जंगल की आग से निपटने के लिए वन विभाग में कार्ययोजनाएं बनी होती हैं तथा सभी कारगर उपाय तय किए होते हैं जिसके लिए बाकायदा बजट का प्रावधान होता है। लेकिन वन विभाग समय रहते कार्ययोजना पर अमल नहीं करता है जिसकी वजह से जंगलों की आग विकराल रूप धारण कर लेती है।जबकि उत्तराखंड के वन महकमे में आला अफसरों की भरमार है। उत्तर प्रदेश में जहां एक प्रमुख वन संरक्षक पहले कभी पूरे प्रदेश की जिम्मेदारी संभालते थे, अलग राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में प्रमुख और मुख्य वन संरक्षक स्तर के करीब ढाई दर्जन अधिकारी नियुक्त हैं। वन महकमे के हिस्से आने वाली रकम का एक बड़ा हिस्सा विभाग के कर्मचारियों की तनख्वाह पर खर्च होता है। वनों की हिफाजत और पौध रोपण के काम में नाम मात्र का पैसा खर्च होता है। प्रदेश के राजस्व का एक बड़ा हिस्सा वनोपज से आता है। लेकिन दुर्भाग्य से यहां के जंगलों की आमदनी का एक छोटा सा हिस्सा ही वनों की हिफाजत में खर्च किया जाता है। अब वन विभाग के अधिकारी अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए तर्क दे रहे हैं कि ग्रामीण जन आग बुझाने में उनकी मदद नहीं करते हैं।

हर साल पहाड़ के जंगलों में आग लगती है। लेकिन इसे आर्थिक और पारिस्थितिकी के नजरिए से कभी नहीं देखा जाता। अव्यावहारिक वन कानूनों ने वनोपज पर स्थानीय निवासियों का अधिकार खत्म कर दिया है और उस पर टिम्बर माफिया और लीसा ठेकेदार हावी हैं। इस वजह से ग्रामीणों और वनों के बीच की दूरी बढ़ी है। जंगलों से आम आदमी का सदियों पुराना रिश्ता कायम किए बिना जंगलों को आग और इससे होने वाले नुकसान से बचाना सरकार और वन विभाग के बूते से बाहर होता गया है। लेकिन इस जमीनी हकीकत को स्वीकारने का साहस फिलहाल राज्य प्रशासन में नहीं है। इस संकट की घड़ी में समाचार देने वाले पत्रकार बंधु तक अपना वीडियो कैमरा एक ओर रखकर जंगलों की आग बुझाने में हाथ बंटा रहे हैं किन्तु वनविभाग तथा राज्यप्रशासन अपने संवैधानिक दायित्व निभाने में लापरवाह सिद्ध हुआ है। दूसरी ओर विभिन्न राजनैतिक दल एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप मढ़ते हुए इस आग पर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकने में लगे हैं।

जिस तरह से ये राजनैतिक पार्टियां विधानसभा का घेराव करने में लगीं हैं या विभिन्न स्थानों में पदयात्राएं कर रही है अगर एक एक बाल्टी पानी लेकर जगलों में लगी आग को बुझाने का काम करतीं तथा इस आपदा के प्रति जनमानस के बीच जागरूकता लाने का दायित्व निभाती तो वह देवभूमि और मातृभूमि की वास्तविक सेवा होती। मगर विडम्बना यह है कि मातृभूमि के प्रति ऐसी आस्था बुद्धि का हम उत्तराखंडवासियों में और हमारे नेताओं में लोप होता जा रहा है। हम सब स्वार्थी और पलायनवादी हो चुके हैं। इसी प्रकोप से जंगल प्रति वर्ष जलते जा रहे हैं और हमारी मातृभूमि की भावना उस कोपाग्नि में जलकर राख हो चुकी है।

आज उत्तराखंड की वनसंपदा तथा पर्यावरण पारिस्थितिकी का जो नुकसान हो रहा है उसकी चिन्ता किसी को नहीं। यह भी चिंता जनक है कि प्रदेश के जंगलों में एक हफ्ते से भीषण आग लगी है किन्तु राज्य के पास सीमित संसाधन होने के कारण आग पर काबू नहीं पाया जा सका है। केन्द्र को चाहिए कि उत्तराखंड की इस भीषण अग्नि आपदा को राष्ट्रीय आपदा घोषित किया जाए‚ सुस्त आपदा प्रबंधन को चुस्त किया जाए और वायुसेना के हेलिकॉप्टरों की संख्या बढाई जाए ताकि शीघ्रातिशीघ्र आग पर काबू पाया जा सके और उसे आगे बढ़ने से रोका जा सके। इस आपदा की संकटपूर्ण घड़ियों में अपने राजनैतिक मतभेदों को भुलाकर समस्त उत्तराखंड वासियों को भी चाहिए कि आपदा प्रबंधन के कर्मचारियों का सहयोग करें। ग्राम सभाएं क्षेत्रीय वनविभाग के संयुक्त तत्वावधान में जंगलों के आसपास बिखरे हुए पिरूल सोरने तथा सूखी पत्तियों को हटाने की कार्ययोजना पर यदि चुस्ती से अमल करें तो बहुत जल्दी ही उत्तराखंड के जगलों में लगी हुई भीषण आग पर क़ाबू पाया जा सकता है। उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग को शान्त करने का यही एकमात्र परंपरागत‚सरल और कारगर उपाय है। मैंने तथा मेरे जोयूं ग्राम के निवासियों ने इसी उपाय से अपने गांव को अनेक बार वनाग्नि से बचाया है।

हम इस अग्नि प्रकोप की आपदा की संकटपूर्ण घड़ियों में इन्द्रदेव से प्रार्थना करते हैं—“हे मघवा द्यऊ बरसै दे” अर्थात् हे इन्द्र देव वर्षा करो ताकि अग्नि देव का प्रकोप शान्त हो। उत्तराखंड में हमारे पूर्वज वैदिक किसान इसी मंत्र से वर्षा का आह्वान किया करते थे। हमें आशा है कि देवराज इन्द्र हमारी प्रार्थना को सुनेंगे और उत्तराखंड के जंगलों में लगी आग शान्त होगी।

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