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‘होली’ आसुरी वृत्तियों के दहन-विरचेन का पर्व

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–डा.मोहन चन्द तिवारी

॥होली का पर्व अपने उद्भवकाल से ही जहां हास-परिहास एवं मनुष्य की आसुरी वृत्तियों के दहन-विरचेन का पर्व रहा है वहां यह सामाजिक समरसता, जातिगत सौहार्द और धार्मिक सद्भावना को प्रोत्साहित करने का भी लोकपर्व है॥

होली का पर्व फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को नव संवत्सर तथा वसन्त ऋतु के आगमन की खुशी में मनाया जाने वाला रंग-रंगीला पर्व है। हर्ष और उल्लास से जुड़े पर्व होली को वसन्त ऋतु की प्राकृतिक छटा से विशेष मादकता प्राप्त होती हैं। खेतों में लहलहाती पीली सरसों, पेड़ों का श्रृंगार करते टेसू के फूल तथा बाग बगीचों की रंग बिरंगे पुष्पों की मदमाती महक से न केवल स्त्री-पुरुष बल्कि, पेड़-पौधे पशु-पक्षी भी हर्षोल्लास और मौज मस्ती में झूमते दिखाई देते है। प्रकृति का दिव्य सौन्दर्य इस अवसर पर अपने चरम यौवन पर पहुंचा होता है।

भारत में होली पर्व के प्राचीन इतिहास पर यदि नजर डाली जाए तो होली के लिए प्रयुक्त होने वाला सबसे प्राचीन शब्द ‘होलाका’ है जो जैमिनी और शबर स्वामी के अनुसार आर्यों का एक मुख्य त्योहार था। काठक गृह्यसूत्र (73-1) के ‘राका होलाके’ सूत्र के अनुसार ‘होलाका’ नामक इस पर्व के अवसर पर स्त्रियों के सौभाग्य देवता पूर्ण चन्द्रमा की विशेष पूजा करने की प्रथा थी। वैदिक युग में ‘सोमयाग’ के समापन पर फाल्गुनी पूर्णिमा की तिथि को ‘महाव्रत’ के अनुष्ठान के रूप में हास-परिहास तथा मनोविनोद सम्बन्धी नृत्यगीतों का आयोजन किया जाता था। ‘ताण्ड्यब्राह्मण’ के अनुसार ‘महाव्रत’ के अनुष्ठान के रूप में ऋत्विग्गण ‘अभिगर-अपगर’ संवाद के रूप में आपस में हंसी ठिठोली करते थे, यज्ञवेदी के चारों ओर जल से भरे घड़ों को लेकर स्त्रियां नृत्य करती थीं तथा तरह तरह के वाद्य यंत्रों को बजाकर हर्षोल्लास पूर्ण गीत संगीत का आयोजन किया जाता था। धीरे धीरे पौराणिक युग में इस त्योहार का सम्बन्ध बालकों की अकाल मृत्यु से बचाने वाले ढोण्ढा राक्षसी के दहन के आख्यान से जुड़ गया। इस आख्यान के अनुसार दिव्य वरदान के कारण शक्तिशाली ढोण्ढा राक्षसी को जोर जोर से तालियां बजाकर अश्लील और भद्दे गाने गाकर, फाल्गुनी पूर्णमासी की रात को तीन बार अग्नि की परिक्रमा करके भस्म किया जा सकता था। तभी से होली के अवसर पर होलिका दहन की परम्परा प्रारम्भ हुई। एक दूसरी पौराणिक मान्यता के अनुसार हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका के दहन की कथा भी इस पर्व के साथ जुड़ी है। होली का पर्व अपने उद्भवकाल से ही जहां हास-परिहास एवं मनुष्य की आसुरी वृत्तियों के दहन-विरचेन का पर्व रहा है। वहां यह पर्व प्रत्येक युग परिस्थितियों में सांस्कृतिक परम्पराओं से ताल मेल बैठाते हुए सामाजिक समरसता, जातिगत सौहार्द और धार्मिक सद्भावना को प्रोत्साहित करने का भी लोकपर्व है।

भारत ही नहीं विश्व के अन्य देशों में भी सामाजिक समरसता की भावना से होली का त्योहार मनाने की परंपराएं आज भी जीवित हैं। यह भारत देश की खूबी है कि यहां विभिन्न धर्मों के लोकपर्व चाहे वह होली हो या ईद या फिर क्रिसमश सदैव राष्ट्रीय एकता धार्मिक सद्भावना, सामाजिक समरसता और आपसी भाईचारे को प्रोत्साहित करने में अहम भूमिका का निर्वाह करते आए हैं। इन सभी त्योहारों मे भी होली एक ऐसा विश्वव्यापी सांस्कृतिक महोत्सव है जिसकी शुरुआत तो भारतवर्ष में हुई किन्तु भारतीय संस्कृति के वैश्विक प्रचार प्रसार के दौरान इस पर्व ने दूसरे देशों की संस्कृतियों को भी प्रभावित किया। वहां की लोक परम्पराओं से ताल मेल बैठाते हुए सामाजिक समरसता और आपसी भाईचारे की भावना को एक सालाना उत्सव का रूप दिया। प्रवासी भारतीय जहाँ-जहाँ जाकर बसे हैं वहाँ वहाँ होली की परंपरा पाई जाती है। पाकिस्तान, बंगलादेश, श्री लंका और मारिशस में भारतीय परंपरा के अनुरूप ही होली मनाई जाती है। विदेशों में कई सारे हिंदू संगठन और सांस्कृतिक संगठन नृत्य, संगीत और सांस्कृतिक उत्सवों के ज़रिए फगुआ मनाते हैं। ट्रिनीडाड एंड टोबैगो में होली को काफ़ी कुछ उसी तरह से मनाया जाता है, जैसे भारत में मनाया जाता है। सभी मित्रों को होली की हार्दिक शुभ कामना सहित

आप के शब्द

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24 Comments to ‘होली’ आसुरी वृत्तियों के दहन-विरचेन का पर्व

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