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दिल को छू लेने वाली एक कहानी

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लेखिका : डॉ० अंजु रानी

कॉलोनी के पार्क में सुबह—सुबह बुजुर्ग व्यक्तियों के ठहाकों की आवाज़् गूँजती रहती है। इन ठहाकों का स्वर कभी—कभी तो ऐसा भयानक होता है कि रामलीला के रावण की हँसी का आभास हो जाता है। लेकिन बुजुर्गों की यह प्रसन्नता पूर्ण स्वास्थ्यवर्धक हँसी हम नौजवानों को भी हँसने के लिए विवश तथा प्रोत्साहित कर देती है। मि० शर्मा आज इस हँसी का हिस्सा नहीं बन पाये उनके साथी डॉ० वत्सल ने कहा— क्यों भई आज फिर बिस्तर गीला हो गया क्या। भानू साहब ने चुटकी ली— अरे! नहीं भई उन्हें हल्का बुखार है वो कल ही सुस्त—सुस्त से लग रहे थे। हँसी की चौपाल के एक अन्य सदस्य ने भी अपनी राय व्यक्त की।

मि० शर्मा जिनकी चर्चा इस लाफ्टर क्लब में बार—बार हो रही है 70 वर्ष के एक रिटायर अधिकारी है। शुगर और बी-पी- की बिमारी का साथ पिछले तीस वर्षों से बना हुआ है परन्तु मि० शर्मा इनसे हार मानने वालो में से नहीं हैं। इस समय बस तब विवश हो जाते हैं जब वे रात को अपना यूरिन रोक नहीं पाते। घर में अकेले रहते हैं। एक घरेलू नौकरानी ही उनकी सबसे बड़ी हमदर्द रिश्तेदार और नर्स है।

पिछले एक सप्ताह से मैं इन बुजुर्गों की टोली को बहुत ध्यानपूर्वक देख रही हूँ। इनमें से कुछ के साथ मेरी अच्छी दुआ—सलाम है। इन्हें देखकर कभी—कभी मुझे भगवान बुद्ध की तरह निराशा होने लगती है और कभी जीवन के इस ढलाव पर उनके जोश और उत्साह को देखकर मैं स्फूर्ति से भर जाती हूँ। अपने अनुभवों की रेवड़ी बाँटने को आतुर इन बुजुर्गों के साथ समय बिताना अच्छा लगता है। किन्तु कामकाज की भागदौड़ के कारण मैं इस कार्य को पूर्ण करने में असमर्थ रहती हूँ। किन्तु आज जब मैंने मि० शर्मा के बिमार होने की बात सुनी तो मुझे अजीबो गरीब सिंहरन होने लगी। एक अनकहा डर मेरे हृदय को तरंगित कर रहा था। कल मैं और मि० शर्मा पार्क की बेंच पर बैठे बतिया रहे थे। झुर्रियों से भरे मि० शर्मा के मुख मण्डल पर जीवन की थकान के साथ—साथ रिश्तों की थकान भी स्पष्ट दिखाई दे रही थी। सूनी और सफेद आँखों से जब वे पार्क में खेल रहे बच्चों को देख रहे थे तो अनायास ही उनके मुख से निकल गया ये देश का भविष्य और अपने माँ—बाप का अगला दर्द है। यह कहकर वो तनिक उदास हुए और आँख की कोर में आए आँसू को चुपके से पोंछ लिया। मुझसे रहा न गया और मैं तपाक से पूछ बैठी— क्या हुआ शर्मा सर सब ठीक है। उन्होंने हामी भर दी। परन्तु मुझे उनके शब्दों ने जिज्ञासु बना दिया ओर उनकी हामी से मेरी जिज्ञासा शान्त नहीं हुई। मैंने माहौल को सामान्य करते हुए पूछा— शर्मा सर आपके घर में कौन—कौन है मेरे घर में छह सदस्य हैं— उन्होंने जवाब दिया। कौन—कौन शर्मा सर’— मैंने फिर से पूछा। मैं अकेला छह के बराबर हूँ— उन्होंने व्यंग्यपूर्ण हँसी से उत्तर दिया। शर्मा जी के उत्तर में व्यंग्य के साथ एक लम्बी ठीस छुपी थी। उनके मन की उदासी उनके चेहरे की बनावटी हँसी को ढक रही थी। और फिर अचानक ऊँचें पेड़ों की हरी—भरी डालियों पर बैठे पक्षियों को देखकर उन्होंने बोलना शुरू किया।

मेरा बेटा और बेटी दोनों विदेश में नौकरी करते हैं। तीन साल में एक बार वो मुझे मिलने आते हैं। हफ्ते में एक बार पूछ लेते हैं—मैं अभी जिन्दा हूँ या….। पाँच वर्ष पहले मेरी पत्नी भी मेरा साथ छोड़ गई। जब अपनी माँ के अन्तिम संस्कार पर एक सप्ताह बाद पहुँचे तो दोनों बहन—भाई एक दूसरे को कड़वी—कड़वी नज़रो से देख रहे थे। दोनों को एक—दूसरे से अजीब सा भय था। मैं जानता था वो अजीब सा भय क्या है— प्रॉपर्टी (जायदाद)। वो किसे मिलेगी। रिश्तों का यह रंग देखकर मैं उस दिन आधा—मर गया और अपनी परवरिश को—गालियाँ देने लगा। कुछ क्षण उपरान्त अपने हृदय को थपकी लगाने लगा ये सारा दोष परवरिश का नहीं है समाज की नई रीत का भी है। उन सपनों का है जो बिना सोचे—समझे हम अपने बच्चों के लिए देखने लगते हैं। विदेश जाने के उस मोह का है जिसका बीज अपनी औलाद के मस्तिष्क में हमने डाला है। शर्मा सर बिना रूकावट के बोलते जा रहे थे और मैं उनके चेहरे पर कुछ ओर पढ़ने की कोशिश कर रही थी। उनका दर्द अभी पूरा बाहर नहीं निकला था। कुछ ओर भी है जो उन्हें लपेटे हुए है। जिसकी पीड़ा उनकी आंखों में प्रतिबिम्बित हो रही थी।

शर्मा सर मैं कल आपके लिए शुगर फ्री गाजर का हलवा लाऊँगी। मैंने हँसते हुए कहा। आप मुझे उदास अच्छे नहीं लगते। आपको देखकर मैं उत्साह से भर जाती हूँ। इस उम्र में भी आप इतने फिट है। अभी तो आपके बुढ़ापे की जवानी शुरू हुई है। मेरी इस बात से वो मन्द—मन्द मुस्कुराने लगे।
पार्क से मैं घर आ गई और अपने काम—काज में व्यस्त हो गई। परन्तु मेरा मन बोझिल सा हो रहा था। मैं सोच रही थी कि बुढ़ापा सचमुच इतना पीड़ादायक होता है या यह ऐसा बन जाता है। यदि परिवार की संकल्पना को देखें तो दादा—दादी माँ—पिताजी और बहन—भाई इसके अंग है। परिवार को ओर छोटा करें तो माता—पिता और बच्चे इसके अंग बनते हैं परन्तु मि० शर्मा का परिवार कौन सा है मुझे समझ नहीं आ रहा था। मैं बुढ़ापे के इस रूप को देखकर तनिक भयभीत हो रही थी। बहुत सारी योजनाएँ और सवाल मेरी सोच में जाल बुन रहे थे। परन्तु उत्तर का कीड़ा उसमें उलझ—उलझकर थक गया।

रात को मेरे प्रश्नों की कचोट ने मुझे सोने नहीं दिया। मैं रह—रह कर मि० शर्मा के चेहरे को याद कर रही थी। उनका स्मरण करते—करते मैं उनके दरवाजे पर पहुँच गई। मैंने घंटी बजाई। रात को 11 बजे उनके घर जाना मुझे अच्छा नहीं लग रहा था किन्तु उनके स्वास्थ्य को लेकर मेरी चिंता मुझे वहाँ खींच लाई। मि० शर्मा ने लगभग पन्द्रह मिनट बाद लड़खड़ाते हुए दरवाजा खोला और मुझे देखकर रोने लगे। उनके रोने से मेरा हृदय कॉप उठा इतना बड़ा व्यक्ति बच्चों की तरह रो रहा है। आश्रुधारा ने उनके नेत्रों को तो लाल कर ही दिया उनके चेहरे को भी भिगो दिया। क्या हुआ शर्मा सर। सब ठीक है— मैंने काँपते स्वर में पूछा। हाँ मैं ठीक हूँ। आओ बेटा यहाँ बैठो। शर्मा सर— आज आप पार्क में नहीं आए तो… मुझे आपकी चिन्ता हुई… इसलिए मैं आपको देखने आ गई, इस समय आने के लिए माफी चाहती हूँ। मेरा आपको परेशान करने का मन नहीं था, मैं तो बस… मैं बोलती जा रही थी, और शर्मा सर चुपचाप मेरी बातें सुन रहे थे।

मि० शर्मा ने अपने आपको सँभालते हुए कहा— पिछले पाँच वर्षों से मेरे कान ये शब्द सुनने को तरस गये कि मुझे आपकी चिन्ता है। ये अकेलापन शरीर की इन झुर्रियों से अधिक पीड़ादायक है, मन की थकान, शरीर की थकान पर हावी रहती है… मि० शर्मा भावुक होकर बोले। मि० शर्मा से मिलकर मैंने राहत की साँस ली और मैं वापिस आकर सो गई। बिस्तर पर लेटे—लेटे यही सोचती रही कि समाज को पाश्चात्य संस्कृति ने अपने रंग में रंग ही लिया। फिर हमारी कानून व्यवस्था भी क्यों न उसके रंग में रंग जायें क्यों न बुजुर्गों का खर्चा और देखभाल का जिम्मा सरकार उठाये जीवन भर परिवार के दायित्वों का बोझ उठाते कन्धों को सरकार सहारा दें। अपने ही बच्चों से दुतकारे माता—पिता की लाठी सरकार बने। परन्तु अभी तो ये सोच मात्र सोच ही है। भारतीय समाज तेजी से संव्रQमित हो रहा है। उसके संव्रQमण को पुनः ठीक करने के लिए कानून या सरकार नहीं अपितु पारिवारिक संस्कारों की दवा की आवश्यकता है। मस्तिष्क में चल रही इस उधेड़बुन में मैं कब सो गई मुझे पता ही नहीं चला।

प्रातः उठकर में पार्क गई और मि० शर्मा तथा उनके लाफ्टर क्लब के अन्य सदस्यों को ढूँढने लगी। आज पार्क का वह कोना सूना पड़ा था। मैंने अपना मोबाईल निकाला और डॉ० वत्सल को फोन किया— डॉ० साहब आज आप पार्क नहीं आये। हाँ— वो… मि० शर्मा नहीं रहें’— रूआँसे स्वर में उन्होंने उत्तर दिया। मेरा फोन छूटकर ज़मीन पर गिर पड़ा और मेरी स्मृतियाँ चलने लगी। मि० शर्मा की आँखों का खालीपन उसमें छुपे दर्द को मैं धीरे—धीरे जान पा रही थी। रात को उनका रोना और फिर संभलना मुझे समझ आ रहा था। क्यों गए उनके बच्चे विदेश क्या अकेले पिता के साथ रहकर अपने देश में आजीविका नहीं कमा सकते थे क्या भावी समाज का भविष्य सही दिशा में जा रहा है अनेक प्रश्न आपके सामने हैं। मैं चीखकर रोना चाहती थी अपने आप को धिक्कार रही थी, मैं वहाँ होती, कुछ करती… परन्तु अब शेष था। मि० शर्मा का नाम और कुछ बातें… मिस्टर शर्मा नहीं रहे।

आप के शब्द

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4 Comments to दिल को छू लेने वाली एक कहानी

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